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एक सौ पैंसठवाँ अध्याय

विभिन्न धर्मोका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ! हृदयमें जो

सर्वसमर्थ परमात्मा दीपकके समान प्रकाशित होते

हैं, मन, बुद्धि और स्मृतिसे अन्य समस्त विषयोंका

अभाव करके उनका ध्यान करना चाहिये। उनका

ध्यान करनेवाले ब्राह्मणको ही श्राद्धके निमित्त

दही, घी और दूध आदि गव्य पदार्थ

प्रदान करे। प्रियङ्गु, मसूर, बैगन और कोदोका

भोजन न करावे। जब पर्व-संधिके समय राहु

सूर्यको ग्रसता है, उस समय “हस्तिच्छाया-योग'

होता है, जिसमें किये हुए श्राद्ध और दान

आदि शुभकर्म अक्षय होते हैं। जब चन्द्रमा

मघा, हंस अथवा हस्त नक्षत्रपर स्थित हो, उसे

“वैवस्वती तिथि' कहते हैं। यह भी 'हस्तिच्छाया-

योग' है। बलिबैश्वदेवमें अग्निमें होम करनेसे बचा

हुआ अन्न बलिवैश्वदेवके मण्डलमें न डाले।

अग्निके अभावमें बह अन्न ब्राह्मणके दाहिने

हाथमें रखे। ब्राह्मण वेदोक्त कर्मसे तथा स्त्री

व्यभिचारी पुरुषसे कभी दूषित नहीं होतौ।

बलात्कारसे उपभोग कौ हुई और शतरुके हाथमें

पड़कर दूषित हुई स्त्रीका (ऋतुकाल-पर्यन्त)

परित्याग करे। नारी ऋतु-दर्शन होनेपर शुद्ध

हो जाती है। जो सम्पूर्ण विश्वमे व्याप्त एक

आत्माके व्यतिरेकसे विश्वमें अभेदका दर्शन

करता है, वही योगी, ब्रह्मके साथ एकीभावको

प्राप्त, आत्मामें रमण करनेबाला और निष्पाप है।

कुछ लोग इन्द्रियोंके विषयोंसे संयोगकों हो

"योग" कहते हैं। उन मूर्खोंने तो अधर्मको हौ धर्म

मानकर ग्रहण कर रखा है। दूसरे लोग मन और

आत्माके संयोगकों ही “योग' मानते हैं। मनको

संसारके सब विषयोंसे हटाकर, क्षेत्रज्ञ परमात्मामें

एकाकार करके योगी संसार-बन्धनसे मुक्त

हो जाता है। यह उत्तम 'योग' है। पाँच इन्द्रिय-

रूपी कुटुम्बोंसे "ग्राम" होता है। छठा मन उसका

“मुखिया” है। वह देवता, असुर और मनुष्योंसे

नहीं जीता जा सकता। पाँचों इन्द्रियाँ बहिर्मुख हैं।

उन्हें आभ्यन्तरमुखी बनाकर इन्द्रियोंको मनमें

और मनको आत्मामें निरुद्ध करे। फिर समस्त

भावनाओंसे शून्य क्षेत्रज्ञ आत्माको परब्रह्म परमात्मामें

लगावे। यही ज्ञान और ध्यान है। इसके विषयमें

और जो कुछ भी कहा गया है, वह तो ग्रन्थका

विस्तार-मात्र है॥ १--१३॥

“जो सब लोगोंके अनुभवमें नहों है, बह

है'-यों कहनेपर विरुद्ध (असंगत)-सा प्रतीत

होता है और कहनेपर वह अन्य मनुष्योंके हदयमें

नहीं बैठता। जिस प्रकार कुमारी स्त्री-सुखको

स्वयं अनुभव करनेपर ही जान सकती है, उसी

प्रकार वह ब्रह्म स्वतः अनुभव करनेयोग्य है।

योगरहित पुरुष उसे उसी प्रकार नहीं जानता, जैसे

जन्मान्ध मनुष्य घड़ेको। ब्राह्मणको संन्यास-ग्रहण

करते देख सूर्य यह सोचकर अपने स्थानसे

विचलित हो जाता है कि “यह मेरे मण्डलका

भेदन करके परत्रह्मको प्राप्त होगा।' उपवास,

त्रत, स्नान, तीर्थ और तप--ये फलप्रद होते हैं,

परंतु ये ब्राह्मणके द्वारा सम्पादित होनेपर सम्पन्न

होते हैं और विहित फलकी प्राप्ति कराते हैं।

“प्रणव ' परब्रह्म परमात्मा है, 'प्राणायाम' ही परम

तप है और “सावित्री 'से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं

है। बह परम पावन माना गया है। पहले क्रमशः

सोम, गन्धर्वं और अग्नि--ये तीन देवता समस्त

स्त्रियोंका उपभोग करते हैं। फिर मनुष्य उनका

उपभोग करते हैं। इससे स्त्रियाँ किसीसे दूषित

नहीं होती हैं। यदि असवर्ण पुरुष नारीकी योनिमें

गर्भाधान करता है, तो जबतक नारी गर्भका प्रसव

नहीं करती, तबतक अशुद्ध मानी जाती है।

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