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जजन

शुद्धि हो जाती है। नाना

भी तीन राततक अशौच रहता है ॥ ९--९४॥

परशुरामजी ! यदि स्त्रीका गर्भ गिर जाय तो

जितने मासका गर्भं गिरा हो, उतनी रतिं बीतनेपर

उस स्त्रीकी शुद्धि होती है। सपिण्ड ब्राह्मण-

कुले मरणाशौच होनेपर उस कुलके सभी लोग

सामान्यरूपसे दस दिनमें शुद्ध हो जाते है । क्षत्रिय

बारह दिनरपे, वैश्य पंद्रह दिनमें और श्र एक

मासमे शुद्ध होते है । (प्रेत या पितरोकि श्राद्धमे

उन्हें आसन देनेसे लेकर अर्घ्यदानतकके कर्म

करके उनके पूजनके पश्चात्‌ जब परिवेषण होता

है, तब सपात्रक कर्ममें वहाँ ब्राह्मण भोजन कराया

जाता है। ये ब्राह्मण पितरोंके प्रतिनिधि होते हैं।

अपात्रक कर्ममें ब्राह्मणोंका प्रत्यक्ष भोजन नहीं

होता तो भी पितर सूक्ष्मरूपसे उस अन्नको ग्रहण

करते हैं। उनके भोजनके बाद वह स्थान उच्छिष्ट

समझा जाता है;) उस उच्छिष्टके निकट ही वेदी

बनाकर, उसका संस्कार करके, उसके ऊपर कुश

बिछाकर उन कुशोंपर ही पिण्ड निवेदन करे।

उस समय एकाग्रचित्त हो, प्रेत अथवा पितरके

नाम-गोत्रका उच्चारण करके ही उनके लिये

पिण्ड अर्पित करे॥ १५--१७॥

जब ब्राह्मण लोग भोजन कर लें और धनसे

उनका सत्कार या पूजन कर दिया जाय, तब

नाप-गोत्रके उच्चारणपूर्वक उनके लिये अक्षत-

जल छोडे जायं । तदनन्तर चार अज्जुल चौड़ा,

उतना ही गहरा तथा एक बित्तेका लंबा एक गड्ढा

खोदा जाय। परशुराम! वहाँ तीन “विकर्षु' (सूखे

कंडोंके रखनेके स्थान) बनाये जाये और उनके

समीप तीन जगह अग्नि प्रज्वलित की जाय।

उनमें क्रमशः “सोमाय स्वाहा, 'वहये स्वाहा"

तथा " यमाय स्वाहा ' मन्त्रे बोलकर सोम, अग्नि

तथा यमके लिये संक्षेपसे चार-चार या तीन-तीन

आहुतियाँ दे। सभी वेदियोँपर सम्यग्‌ विधिसे

देनी चाहिये। फिर वहाँ पहलेकी ही

भाँति पृथक्‌-पृथक्‌ पिण्ड-दान करे ॥ १८--२१॥

अन्न, दही, मधु तथा उड़दसे पिण्डकी पूर्ति

करनी चाहिये। यदि वर्धके भीतर अधिक मास

हो जाय तो उसके लिये एक पिण्ड अधिक देना

चाहिये। अथवा बारहों मासके सारे मासिक श्राद्ध

द्वादशाहके दिन ही पूरे कर दिये जायें। यदि

वर्षके भीतर अधिक मासकी सम्भावना हो तो

द्वादशाह श्राद्धके दिन ही उस अधिमासके निमित्त

एक पिण्ड अधिक दे दिया जाय। संवत्सर पूर्ण

हो जानेपर श्राद्धको सामान्य श्राद्धकौ ही भाँति

सम्पादित करे॥ २२--२४॥

सपिण्डीकरण श्राद्धमे प्रेतको अलग पिण्ड

देकर बादमें उसीकौ तीन पीढ़ियोंके पितरोंको

तीन पिण्ड प्रदान करने चाहिये। इस तरह इन

चारों पिण्डोंकों बड़ी एकाग्रताके साथ अर्पित

करना चाहिये। भृगुनन्दन! पिण्डोंका पूजन और

दान करके "पृथिवी ते पात्रम्‌० ', "ये समानाः०'

इत्यादि मन्त्रके पाठपूर्वक यथोचित कार्य सम्पादन

करते हुए प्रेत-पिण्डके तीन टुकड़ॉको क्रमशः

पिता, पितामह और प्रपितामहके पिण्डों जोड

दे। इससे पहले इसी तरह प्रेतके अर्घ्यपात्रका

पिता आदिके अर्ध्यपात्रोें मेलन करना चाहिये।

पिण्डमेलन और पात्रेमेलनका यह कर्म पृथक्‌-

पृथक्‌ करना उचित है। शुद्रका यह श्राद्धकर्म

मन्त्ररहित करनेका विधान है । स्तिर्योका सपिण्डीकरण

श्राद्ध भी उस समय इसी प्रकार (पूर्वोक्त रीतिसे)

करना चाहिये ॥ २५-२८॥

पितरोंका श्राद्ध प्रतिवर्षं करना चाहिये; किंतु

प्रेतके लिये सान्नोदक कुम्भदान एक वर्षतक करे ।

वर्षाकाले गङ्गाजीकी सिकताधाराकी सम्भव है

गणना हो जाय, किंतु अतीत पितरोंकी गणना

कदापि सम्भव नहीं है। काल निरन्तर गतिशील

है, उसमें कभी स्थिरता नहीं आती; इसलिये कर्म

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