रेवती - ये विवाहके नक्षत्र है ॥ १२--१५॥ | भी छठे स्थानका शुक्र उत्तम नहीं होता। चतुर्थी-
पुरुषवाची लग्न तथा उसका नवमांश शुभ | कर्म भी वैवाहिक नक्षत्रमें ही करना चाहिये ।
होता है। लग्नसे तीसरे, छठे, दसवें, ग्यारहवें | उसमें लग्न तथा चौथे आदि स्थानोंमें ग्रह न रहें
तथा आठवें स्थानमें सूर्य, शनैश्चर और बुध हों | तो उत्तम है। पर्वका दिन छोड़कर अन्य समयपमें
तो शुभ है। आठवें स्थानमें मङ्गलका होना | ही स्त्री-समागम करे। इससे सती (या शची)
अशुभ है। शेष ग्रह सातवें, बारहवें तथा | देवीके आशीर्वादसे सदा प्रसन्नता प्राप्त होती
आठवें घरमें हों तो शुभकारक होते हैं। इनमें | है॥ १६--१९॥
इस प्रकार आदि आण्तेव महापुराणमें 'विवाहमेद-कथत” नामक
एक साँ चाँकतवाँ अध्याय पूरा हुआ/ १५४॥
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एक सौ पचपनवाँ अध्याय
आचारका वर्णन
पुष्कर कहते है -- परशुरामजी ! प्रतिदिन
प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर श्रीविष्णु आदि
देवताओंका स्मरण करे । दिनमें उत्तरकी ओर
मुख करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये,
रातमें दक्षिणाभिमुख होकर करना उचित है ओर
दोनों संध्याओंमें दिनकी ही भाँति उत्तराभिमुख
होकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। मार्ग
आदिपर, जलमें तथा गलीमें भी कभी मलादिका
त्याग न करे। सदा तिनकोंसे पृथ्वीकों ढककर
उसके ऊपर मल-त्याग करे। मिट्टीसे हाथ-पैर
आदिकी भलीभोंति शुद्धि करके, कुल्ला करनेके
पश्चात्, दन्तधावन करे। नित्य, नैमित्तिक, काम्य,
क्रियाङ्ग, मलकर्षण तथा. क्रिवा-स्नान-ये छः
प्रकारके स्नान बताये गये हैं। जो स्नान नहीं
करता, उसके सब कर्म निष्फल होते है; इसलिये
प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करना चाहिये ॥ १--४॥
कुएँसे निकाले हुए जलकी अपेक्षा भूमिपर
स्थित जल पवित्र होता है । उससे पवित्र झरनेका
जल, उससे भी पवित्र सरोवरका जल तथा उससे
भी पवित्र नदीका जल बताया जाता है। तीर्थका
जल उससे भी पवित्र होता है ओर गङ्गाका जल
तो सबसे पवित्र माना गया है। पहले जलाशयमें
गोता लगाकर शरीरका मैल धो डाले। फिर
आचमन करके जलसे मार्जन करे। 'हिरण्यवर्णाः०
आदि तीन ऋचाएँ, ' शं नो देवीरभिष्टये० ' ( यजु०
३६। १२) यह मन्त्र, * आपो हि छ्ला०' (यजु०
३६। १४--१६) आदि तीन ऋचाएँ तथा
“इदमाप:०' (यजु० ६। १७) यह मन्त्र -इन
सबसे मार्जन किया जाता है । तत्पश्चात् जलाशयमें
डुबकी लगाकर जलके भीतर ही जप करे । उसमें
अघमर्षण सूक्त अथवा “दुपदादिव०' (यजु०
२०।२०) मन्त्र, या "युञ्जते मन:०' (यजु
५५। १४) आदि सूक्त अथवा 'सहस््रशीर्षा०'
(यजु० अ० ३१) आदि पुरुष-सृक्तका जप करना
चाहिये। विशेषतः गायत्नीका जप करना उचित
है । अधमर्षणसूक्तमें भाववृत्त देवता ओर अघमर्षण
ऋषि है । उसका छन्द अनुष्टुप् है । उसके द्वारा
भाववृत्त (भक्तिपूर्वक बरण किये हुए) श्रीहरिका
स्मरण होता है। तदनन्तर वस्त्र बदलकर भीगी
धोती निचोडनेके पहले ही देवता और पितरोंका
तर्पण करे॥ ५--११॥
फिर पुरुषसूक्त (यजु० अ० ३१)-के द्वारा
जलाञ्जलि दे। उसके बाद अग्निहोत्र करे । तत्पश्चात्
अपनी शक्तिके अनुसार दान देकर योगक्षेमकी