मार गिराइये। ॐ लाल-लाल आँखोंवाली देवि। | ग्रहोंको बाँध दीजिये। ॐ दिशाओंको बाँधिये।
शत्रुओंको चक्कर कटाइये, उन्हें धराशायी कीजिये।
ॐ शत्रुओंके सिर उतार लीजिये। उनकी आँखें
बंद कर दीजिये। ॐ उनके हाथ-पैर ले लीजिये,
अद्भ-मुद्रा फोड़िये। ॐ फट्। ॐ विदीर्ण
कीजिये । ॐ त्रिशूलसे छेदिये। ॐ वज्जसे हनन
कीजिये। ॐ डंडेसे पौटिये, पीटिये। ॐ चक्रसे
छिन्न-भिन्न कीजिये, छिन्न-भिन्न कीजिये। ॐ
शक्तिसे भेदन कौजिये। दाढ़से कीलन कीजिये।
ॐ कतरनीसे चीरिये। ॐ अड्जुशसे ग्रहण
कीजिये। ॐ सिरके रोग और नेत्रकी
पीड़ाको, प्रतिदिन होनेवाले ज्वरको, दो दिनपर
होनेवाले ज्वरको, तीन दिनपर होनेवाले
ज्वरको, चौथे दिन होनेवाले ज्वरको, डाकिनियोंको
तथा कुमारग्रहोंकों शत्रुसेनापर छोड़िये, छोड़िये।
ॐ उन्हें पकाइये। ॐ शत्रुओंका उन्मूलन
कीजिये। ॐ उन्हें भूमिपर गिराइये। ॐ उन्हें
पकड़िये। ॐ ब्रह्माणि! आइये। ॐ माहेश्वरि!
आइये। ॐ कौमारि! आइये। ॐ वैष्णवि,
आइये । ॐ वाराहि! आइये । ॐ ऐन्द्रि! आइये।
ॐ चामुण्डे! आइये । ॐ रेवति! आइये । ॐ
आकाशरेवति! आइये। ॐ हिमालयपर विचसेवालौ
देवि! आइये। ॐ रुरुमर्दिनि! असुरक्षयंकरि
(असुरविनाशिनि)! आकाशगामिनि देवि।
विरोधिर्योको पाशसे बाधिये, बोधिये ।
आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये। अपनी
प्रतिज्ञापर स्थिर रहिये। ॐ मण्डलम प्रवेश
कराइये। ॐ शत्रुकों पकड़िये और उसका
मुँह बाँध दीजिये। ॐ नेत्र बाँध दीजिये। हाथ-
पैर भी बाँध दीजिये। हमें सतानेवाले समस्त दुष्ट
ॐ विदिशा्ओको ` जँधिये। नीचे माँधिये।
ॐ सब ओरसे बाँधिये। ॐ भस्मसे, जलसे,
मिट्टीसे अथवा सरसोसि सबको आविष्ट कीजिये ।
ॐ नीचे गिराइये। ॐ चामुण्डे! किलि किलि।
ॐ चिच्चे हं फट् स्वाहा ॥ २॥
यह “जया नामक पदमाला है, जो समस्त
कर्मोको सिद्ध करनेवाली दै। इसके द्वारा होम
करनेसे तथा इसका जप एवं पाठ आदि करनेसे
सदा ही युद्धमें विजय प्राप्त होती है।अट्टाईस
भुजाओंसे युक्त चामुण्डा देवीका ध्यान करना
चाहिये। उनके दो हाथोंमें तलवार और खेटक हैं।
दूसरे दो हाथोंमें गदा और दण्ड हैं। अन्य दो हाथ
धनुष और बाण धारण करते हैं। अन्य दो हाथ
मुष्टि और मुद्गरसे युक्त हैं। दूसरे दो हाथोंमें शङ्खं
और खड्ग हैं। अन्य दो हाथोंमें ध्वज और वन्न
हैं | दूसरे दो हाथ चक्र और परशु धारण करते हैं।
अन्य दो हाथ डमरू और दर्पणसे सम्पन्न हैं।
दूसरे दो हाथ शक्ति और कुन्दे धारण करते हैं।
अन्य दो हाथोंमें हल और मूसल हैं। दूसरे दो
हाथ पाश और तोमरसे युक्त हैं। अन्य दो हाथोंमें
ढक्का और पणव हैं। दूसरे दो हाथ अभयकी मुद्रा
धारण करते हैं तथा शेष दो हाथोंमें मुष्टिक शोभा
पाते हैं। वे महिषासुरको डाँटती और उसका वध
करती हैं। इस प्रकार ध्यान करके हवन करनेसे
साधक शत्रुओंपर विजय पाता है। घी, शहद और
चीनीमिश्रित- तिलसे हवन करना चाहिये। इस
संग्रामविजय-विद्याका उपदेश जिस-किसीको नहीं
देना चाहिये (अधिकारी .पुरुषको ही देना
चाहिये) ॥ ३--७॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापृराणके अन्तर्गत दुद्धजयार्णवमे 'संग्रामविजय-विद्याका वर्णन
नामक एक सौ पंतीसवां अध्याय पूरा हुआ॥ १३५ /
[ जप...