तदनन्तर सृष्टिकालमें परमपुरुष श्रीविष्णुने प्रकृतिमें | हुए, ऐसा हमने सुना है। भगवान् हिरण्यगर्भने
प्रवेश करके उसे क्षुब्ध (विकृत) कर दिया।
फिर प्रकृतिसे महत्तत्त्और उससे अहंकार प्रकट
हुआ। अहंकार तीन प्रकारका है--बैकारिक
(सात्विक), तैजस (राजस) और भूतादिरूप
तामस । तामस अहंकारसे शब्द-तन्मात्रावाला आकाश
उत्पन्न हुआ। आकाशसे स्पर्श-तन्मात्रावाले वायुका
प्रादुर्भाव हुआ। वायुसे रूप-तन्यात्रावाला अग्नितत्त्व
प्रकट हुआ। अग्निसे रस-तन्मात्रावाले जलकी
उत्पत्ति हुई और जलसे गन्ध- तन्मात्रावाली भूमिका
प्रादुरभावि हुआ । यह सब तामस अहंकारसे होनेवाली
सृष्टि है । इन्द्रियां तैजस अर्थात् राजस अहंकारसे
प्रकट हुई हैँ । दस इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता
और ग्वारहवीं इन्द्रिय मन(-के भी अधिष्ठाता
देवता) -ये वैकारिक अर्थात् सात्विक अहंकारकी
सृष्टि है । तत्पश्चात् नाना प्रकारकी प्रजाको उत्पन्न
करनेकी इच्छावाले भगवान् स्वयम्भूने सबसे
पहले जलकी ही सृष्टि की और उसमें अपनी
शक्ति (वीर्यं )-का आधान किया। जलको ' नार"
कहा गया है; क्योंकि वह नरसे उत्पन्न हुआ दै ।
"नार' (जल) ही पूर्वकालमें भगवानूका "अयन '
(निवास-स्थान) था; इसलिये भगवानृको ' नारायण '
कहा गया है ॥ १--७ ‡॥
स्वयम्भू श्रीहरिने जो वीर्य स्थापित किया था,
वह जले सुवर्णमय अण्डके रूपमें प्रकट हुआ।
उसमें साक्षात् स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजी प्रकट
एक वर्षतक उस अण्डके भीतर निवास करके
उसके दो भाग किये। एकका नाम द्युलोक"
हुआ और दूसरेका ^ भूलोक" । उन दोनों अण्ड-
खण्डोके बीचमें उन्होंने आकाशकी सृष्टि की।
जलके ऊपर तैरती हुई पृथ्वीको रखा और दसों
दिशाओंके विभाग किये। फिर सृष्टिकी इच्छावाले
प्रजापतिने वहाँ काल, मन, वाणी, काम, क्रोध
तथा रति आदिकी तत्तद्रूपसे सृष्टि की। उन्होंने
आदिर विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित इन्द्रधनुष,
पक्षियों तथा पर्जन्यका निर्माण किया। तत्पश्चात्
यज्ञकी सिद्धिके लिये मुखसे ऋक्, यजु और
सामवेदको प्रकट किया। उनके द्वारा साध्यगणोंने
देवताओंका यजन किया। फिर ब्रह्माजीने अपनी
भुजासे ऊँचे-नीचे (या छोटे-बड़े) भूर्तोको उत्पन्न
किया, सनत्कुमारकी उत्पत्ति की तथा क्रोधसे
प्रकट होनेवाले रुद्रको जन्म दिया । मरीचि, अत्रि,
अद्भिर, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु ओर वसिष्ठ-इन
सात ब्रह्मपुतरोंको ब्रह्माजीने निश्चय ही अपने
मनसे प्रकट किया। साधुत्रेष्ट! ये तथा रुद्रगण
प्रजावर्गकी सृष्टि करते हैं। ब्रह्माजीने अपने
शरीरके दो भाग किये । आधे भागसे वे पुरुष हुए
ओर आधेसे खी बन गये; फिर उस नारीके गर्भसे
उन्होने प्रजाओंकी सृष्टि कौ। (ये ही स्वायम्भुव
मनु तथा शतरूपाके नामसे प्रसिद्ध हए । इनसे ही
मानवीय सृष्टि दुई ।) ॥ ८--१७॥
इस ग्रकार आदि आग्नेय महापुाणमे 'जगत्का सृष्टिका वर्णन” नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हआ ॥ १७॥
द
अठारहवाँ अध्याय
स्वायम्भुव मनुके वंशका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-- मुने ! स्वायम्भुव मनुसे | ऋषिकी भार्या हुई। राजा प्रियत्रतसे सम्राट् कुक्षि
उनकी तपस्विनी भार्या शतरूपाने प्रियत्रत और | ओर विराट नामक सामर्थ्यशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।
उत्तानपाद नामक दो पुत्र और एक सुन्दरी कन्या | उत्तानपादसे सुरुचिके गर्भसे उत्तमनामक पुत्र
उत्पन्न की । वह कमनीया कन्या (देवहूति) कर्दम | उत्पन्न हुआ और सुनीतिके गर्भसे धुवका जन्म