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* अध्याय १३२ *

ऋषिसे बली राक्षस है, - राक्षसम बली

पिशाच है और पिशाचसे बली मनुष्य होता है ।

इसमें बली दुर्बलका त्याग करे -अर्थात्‌ सेव्य

सेवक-इन दोनोकिं नामोके आदि-अक्षरके द्वारा

बली वर्ग तथा दुर्बल वर्गका ज्ञान करके बली

वर्गवाले दुर्बल वर्गवालेसे व्यवहार न करं । एक

ही वकि सेव्य तथा सेवकके नामका आदि-वर्ण

रहना उत्तम होता दै ॥ ९-१३॥

अब ` पैत्री-विभाग-सम्बन्धी " ताराचक्र" को

सुनो। पहले नामके प्रथम अक्षरके द्वारा नक्षत्र

जान ले, फिर नौ ताराओंकी तीन बार आवृत्ति

करनेपर सत्ताईस नक्षत्रोंकी ताराओंका ज्ञान हो

जावगा। इस तरह अपने नामके नक्षत्रका तारा जान

लें। १. जन्म, २ सम्पत्‌, ३ विपत्‌, ४ क्षेम, ५

प्रत्यरि. ६ साधक, ७ वध, ८ मैत्र, ९-अतिमैत्र--

ये नौ ताराएँ है । इनमे "जन्म" तारा अशुभ, ' सम्पत्‌”

तारा अति उत्तम और ' विपत्‌" तारा निष्फल होती

है। "क्षेम", ताराको प्रत्येक कार्ये लेना चाहिये ।

"प्रत्यरि ' तारासे धन-क्षति होती टै। साधकः

तारासे राज्य-लाभ होता है । ' वध ' तारासे कार्यका

विनाश होता है। 'मैत्र” तारा मैत्रीकारक है और

*अतिमैत्र' तारा हितकारक होती है।

विशेष प्रयोजन --जैसे सेव्य रामचन्द्र, सेवक

हनुमान्‌-इन दोनोंमें भाव कैसा रहेगा, इसे

जाननेके लिये हनुमानूके नामके आदि वर्णं (ह)-

के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र हुआ तथा रामके नामके

आदि वर्ण (स) -के अनुसार नक्षत्र चित्रा. हुआ।

पुनर्वसुसे चित्राकौ संख्या आठवीं हुई। इस

संख्याके अनुसार "मैत्र" नामक तारा हुई। अते

इन दोनोंकी मैत्री परस्पर कल्याणकर होगी- यों

जानना चाहिये ॥ १४--१८॥

(अब ताराचक्र कहते हैं - ) प्रिये ! नामाक्षरोंके

स्वरॉकी संख्याम वर्णोकी संख्या जोड़ दे। उसमें

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बीका. भाग दे! शेषसे फलको जाने। अर्थात्‌

स्वल्प शेषवाला व्यक्ति अधिक शेषवाले व्यक्तिसे

लाभ उठाता है। जैसे सेव्य राम तथा सेवक

हनुमान्‌। इनमें सेव्य रामके नाका २=२। आ~२।

म्‌-५। अ= १। सवका योग १० हुआ। इसमें २०

से भाग दिया तो शेष १० सेव्यका हुआ तथा

सेवक हनुमानूके नामका ह्‌=-४। अ= १। न्‌=५।

उ=५। म्‌=५। आ-=२॥ न्‌=५। सबका योग २७

हुआ। इसमें २० का भाग दिया तो शेष ७

सेवकका हुआ। यहाँपर सेवकके शेषसे सेव्यका

शेष अधिक हो रहा है, अतः हनुमानजी रामजीसे

पूर्ण लाभ उठायेंगे--ऐसा' ज्ञान होता है ॥ १९॥

अब नामाक्षरं स्वरोकी संख्याके अनुसार

लाभ-हानिका विचार करते हैं। सेव्य-सेवक

दोनोकि बीच जिसके नामाक्षरोंमें अधिक स्वर

हों, वह धनी है तथा जिसके नामाक्षरोमे अल्प

स्वर हों, बह ऋणी है । ' धन” स्वर मित्रताके लिये

तथा “ऋण” स्वर दासताके लिये होता है। इस

प्रकार लाभ तथा हानिकी जानकारीके लिये

सेवाचक्र' कहा गया। मेष-मिथुन राशिबालोंमें

प्रीति, मिथुन-सिंह राशिवालोमिं मैत्री तथा तुला-

सिंह राशिवालोंमें महामैत्री होती है; किंतु धनु-

कुम्भ राशिवालोमें मैत्री नहीं होती। -अतः इन

दोनोंको परस्पर सेवा नहीं करनी चाहिय्रे। मीन-

वृष्‌, वृष-कर्क, कर्क-कुम्भ, कन्या-वृश्चिक, मकर-

वृश्चिक, मीन-मकर राशिवालोंमें मैत्री तथा मिथुन-

कुम्भ, तुला-मेष राशिवालोंकी परस्पर महामैत्री

होती है। वृष-वृश्चिकमें परस्पर वैर होता है;

मिथुन-धनु, कर्क-मंकर,. मकर-कुम्भ, कन्या-

मीन राशिवालोंमें परस्पर प्रीति रहती है। अर्थात्‌

उपर्युक्त दोनों शिवालोमिं सेव्य-सेवक भाव तथा

मैत्री-व्यवहार एवं कन्या-वरका सम्बन्ध सुन्दर

तथा शुभप्रद होता है॥ २०--२६॥

इस प्रकार आदि आनेय महापुरुषमें 'सेका- चक्र आदिका वर्णन मक एक सौ बतीसयाँ अध्याय पृद्र हुआ ॥.१२२॥

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