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एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय

सेवाचक्र आदिका निरूपण

शंकरजी कहते हैं-- अब मैं 'सेवाचक्र' का

प्रतिपादन कर रहा हूँ, जिससे सेवकको सेव्यसे

लाभ तथा हानिका ज्ञान होता है। पिता, माता

तथा भाई एवं स्त्री-पुरुष -ईइन लोगोके लिये

इसका विचार विशेषरूपसे करना चाहिये । कोई

भी व्यक्ति पूर्वोक्त व्यक्तियोमेंसे किससे लाभ प्राप्त

कर सकेगा--इसका ज्ञान वह उस “सेवाचक्र' से

कर सकता है ॥ १-२॥

(सेवाचक्रका स्वरूप वर्णन करते है)

पूर्वसे पश्चिमको छः रेखां और उत्तरसे दक्षिणको

आठ तिरछी रेखाएं खींचे। इस तरह लिखनेपर

पैंतीस कोष्ठका 'सेवाचक्र' बन जायगा। उसमें

ऊपरके कोष्ठौमे पाच स्वर्रोको लिंखकर पुनः

स्पर्श-वर्णोको लिखे । अर्थात्‌ 'क' से लेकर 'ह'

तकके वर्णका न्यास करे। उसमें तीन वर्णो (ङः

ज, ण)-को छोड़कर लिखे। नीचेवाले कोष्टोंमें

क्रमसे सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, शत्रु तथा मृत्यु-

इनको लिखे। इस तरह लिखनेपर सेवाचक्र

सर्बाज्भसम्पन्न हो जाता है। इस चक्रमे शत्रु तथा

मृत्यु नामके कोष्ठमें जो स्वर तथा अक्षर हैं,

उनका प्रत्येक कार्यमें त्याग कर देना चाहिये।

किंतु सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, शत्रु तथा मृत्यु

नामबाले कोष्टोंमेंसे किसी एक ही कोष्ठमें यदि

सेव्य तथा सेवकके नामका आदि-अक्षर पड़े तो

वह सर्वथा शुभ है। इसमें द्वितीय कोष्ठ पोषक है,

तृतीय कोष्ठ धनदायक है, चौथा कोष्ट आत्मनाशक

है, पाँचवाँ कोष्ठ मृत्यु देनेवाला है । इस चक्रसे

भित्र, नौकर एवं बान्धवसे लाभकी प्राप्तिक लिये

विचार करना चाहिये। अर्थात्‌ हम किससे मित्रताकां

व्यवहार करें कि मुझे उससे लाभ हो तथा

किसको नौकर रखें, जिससे लाभ हो एवं

परिवारके किस व्यक्तिसे मुझे लाभ होगा--इसका

विचार इस चक्रसे करे। जैसे- अपने नामका

आदि-अशक्षर तथा विचारणीय व्यक्तिके नामका

आदि-अक्षर सेकाचक्रके किसी एक ही कोष्ठमें पड़

जाय तो वह शुभ है, अर्थात्‌ उस व्यक्तिसे लाभ

होगा- यह जाने। यदि पहलेवाले तीन कोष्टोमेंसे

किसी एकमें अपने नापका आदि-वर्णं पहलेवाले

तीन कोष्ठों (सि०, साऽ, सुऽ) मेंसे किसी एकमे

पड़े और विचारणीय व्यक्छिके नामका आदि-

अक्षर चौथे तथा पाँचवें पडे तो अशुभ होता है।

चौथे तथा पाँचवें कोष्टोंमें किसी एके सेव्यके

तथा दूसरेमें सेवकके नामका आदि-वर्ण पड़े तो

अशुभ ही होता है॥ ३--८ ३ ॥

सैयाचक्रका

स्वक्ष ~

अब अकारादि वर्गों तथा ताराओंके द्वारा

सेव्य-सेवकका विचार कर रहे है - अवर्ग (अ इ

उ ए ओ)-का स्वामी देवता है, कवर्ग (कलग

घ ड)-का स्वामी दैत्य है, चवर्ग (चछजझ

अ)-का स्वामी नाग है, टवर्ग (ट ठ ड ढ़ ण)-

का स्वामी गन्धर्व है, तवर्ग (तथदधन)-का

स्वामी ऋषि है, पवर्ग (प फ तर भ म)-का

स्वामी राक्षस है, यवर्ग (यर ल ब)-का स्वामी

पिशाच हैं, शवर्ग (श ष स ह)-का स्वामी मनुष्य

है। इनमें देवतासे बली दैत्य है, दैत्यसे बली सर्प

है, सर्पसे बली गन्धर्व है, गन्धर्वसे बली ऋषि है,

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