* अग्निपुराण *
एक सौ उन्तीस्वँ अध्याय
अर्घकाण्डका प्रतिपादन
शंकरजी कहते हैं--अब मैं वस्तुओंकी
म॑हगी तथा सस्तीके सम्बन्धमें विचार प्रकट कर
रहा हूँ। जब कभी भूतलपर उल्कापात, भूकम्प,
निर्घात ( वज्रापात), चन्द्र और सूर्यके ग्रहण तथा
दिशाओंमें अधिक गरमीका अनुभव हो तो इस
बातका प्रत्येक मासमें लक्ष्य करना चाहिये। यदि
उपर्युक्त लक्षणोंमेंसे कोई लक्षण चैत्रे हो तो
अलंकार-सामग्रियों (सोना-चाँदी आदि)-का संग्रह
करना चाहिये। वह छः मासके बाद चौगुने
मूल्यपर बिक सकता है। यदि वैशाखमें हो तो
वस्त्र, धान्य, सुवर्णं, घृतादि सब पदार्थोका संग्रह
करना चाहिये । वे आठवें मासमे छःगुने मूल्यपर
विकते हैँ । यदि ज्येष्ठ तथा आपाद मासमे मिले
तो जौ, गेहूँ और धान्यका संग्रह करना चाहिये ।
यदि श्रावणमें मिले तो घृत-तैलादि रस-पदार्थोंका
संग्रह करना चाहिये। यदि आश्चिनमें मिले तो
वस्त्र तथा धान्य दोनोंका संग्रह करना चाहिये ।
यदि कार्तिके मिले तो सब प्रकारका अत्न
खरीदकर रखना चाहिये। अगहन तथा पौषे
यदि मिले तो कुङ्कुम तथा सुगन्धित पदार्थोंसे
लाभ होता है। माघमें यदि उक्त लक्षण मिले तो
धान्यसे लाभ होता है। फाल्गुनमें मिले तो
सुगन्धित पदार्थोंसे लाभ होता है । लाभकी अवधि
छः या आठ मास समञ्जनी चाहिये ॥ १--५॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें “अर्धकाण्डका प्रतिषादन ' नामक
एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय पू हुआ॥ १२९॥
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एक सौ तीसवाँ अध्याय
विविध मण्डलोंका वर्णन
शंकरजी कहते हैँ -- भद्रे! अब यै विजयके
लिये चार प्रकारके मण्डलका वर्णन करता हूँ।
कृत्तिका, मघा, पुष्य, पूर्वाफल्गुनी, विशाखा,
भरणी, पूर्वाभाद्रपदा -इन नक्षत्रोंका "आग्नेय
मण्डल ' होता है, उसका लक्षण बतलाता हूं । इस
मण्डलमें यदि विशेष वायुका प्रकोप हो, सूर्य-
चनद्रका परिवेष लगे, भूकम्प हो, देशकी क्षति
हो, चन्द्र-सूर्यका ग्रहण हो, धूमज्वाला देखनेमें
आये, दिशाओंमें दाहका अनुभव होता हो, केतु
अर्थात् पुच्छल तारा दिखायी पड़ता हो, रक्तवृष्टि
हो, अधिक गर्मीका अनुभव हो, पत्थर पड़े, तो
जनतामे नेत्रका रोग, अतिसार (हैजा) और
अग्निभय होता है । गाये दूध कम कर देती हैं।
वृक्षोमिं फल-पुष्प कम लगते है । उपज कम होती
क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) दुःखी रहते हैं। सारे
मनुष्य भूखसे व्याकुल रहते हैँ । ऐसे उत्पातोंके
दौख पड़नेपर सिन्ध-यमुनाकी तलहरी, गुजरात,
भोज, बाह्लीक, जालन्धर, काश्मीर और सातवाँ
उत्तरापथ -ये देश विनष्ट हो जाते हैं। हस्त,
चित्रा, मघा, स्वाती, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी,
अश्विनौ --इन नक्षत्रोंका वायव्य मण्डल' कहा
जाता है। इसमें यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो विक्षिप्त
होकर हाहाकार करती हुई सारी प्रजाएँ नष्टप्राय
हो जाती है । साथ ही डाहल (त्रिपुर), कामरूप,
कलिङ्ग, कोशल, अयोध्या, उज्जैन, कोङ्कण तथा
आन्ध्र-ये देश नष्ट हो जाते है । आश्लेषा, मूल,
पूर्वाषाढा, रेवती, शतभिषा तथा उत्तराभाद्रपदा-
इन नक्षत्रोंको वारुण मण्डल ' कहते हैं। इसमें
है । वर्षा भी स्वल्प होती है । चारों वर्ण (ब्राह्मण, | यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो गायोंमें दूध-घीकी