वायव्य, पश्चिम, ऐशान्य--ये इनमेंसे एक-दूसरेको | पश्चिमसे ईशानतक, ईशानसे दक्षिणतक, दक्षिणसे
देखते हैं। प्रतिपदा तथा नवमी आदि तिथियोंमें | वायव्यकोणतक, वायव्यकोणसे उत्तरतक चार-
मेषादि राशियोके साथ ही रवि आदि वारको भी | चार दण्डतक राहुका भ्रमण होता है। राहुको
मिलाये। यह योग कार्यसिद्धिके लिये होता है ।
जैसे पूर्व दिशा, प्रतिपदा तिथि, मेष लग्न,
रविवार--यह योग पूर्व दिशाके लिये युद्ध आदि
कार्योंमें सिद्धिदायक होता है। ऐसे और भी
समझने चाहिये। मेषसे चार राशियाँ अर्थात् मेष,
वृष, मिथुन, कर्क एवं कुम्भ-ये लग्न पूर्ण
विजयके लिये होते हैं। शेष राशियाँ मृत्युके
लिये होती हैं। सूर्यादि ग्रह तथा रिक्ता, पूर्णा
आदि तिथियोंका इसी तरह क्रमशः न्यास करना
चाहिये, जैसा कि पहले दिशाओंके साथ
कहा गया है। सूर्यके सम्बन्धसे युद्धमें कोई
उत्तम फल नहीं होता। सोमका सम्बन्ध संधिके
लिये होता है। मङ्गलके सम्बन्धसे कलह होता
है। बुधके सम्बन्धसे संग्राम करनेसे अभीष्टसाधनकी
प्राप्ति होती है। गुरुके सम्बन्धसे विजयलाभ
होता है। शुक्रके सम्बन्धसे अभीष्ट सिद्ध होता
है एवं शनिके सम्बन्धसे युद्धमें पराजय होती
है॥ २७--३०॥
(पिङ्गला (पक्षि)-चक्रसे शुभाशुभ कहते
हैं--) एक पक्षीका आकार लिखकर उसके मुख,
नेत्र, ललाट, सिर, हस्त, कुक्षि, चरण तथा पंखमें
सूर्यके नक्षत्रसे तीन-तीन नक्षत्र लिखे। पैरवाले
तीन नक्षत्रोंमें रण करनेसे मृत्यु होती है तथा
पंखबाले तीन नक्षत्रोंमें धनका नाश होता है।
मुखवाले तीन नक्षत्रॉमें पीड़ा होती है और
सिरवाले तीन नक्षत्रॉमें कार्यका नाश होता है।
कुक्षिवाले तीन नक्षत्रोंमें रण करनेसे उत्तम फल
होता है॥ ३१-३२३॥
(अब राहुचक्र कहते हैं-) पूर्वसे
नैऋत्यकोणतक, नैऋत्यकोणसे उत्तर दिशातक,
उत्तर दिशासे अग्निकोणतक, अग्निकोणसे पश्चिमतक,
पृष्ठकी ओर रखकर रण करना विजयप्रद होता है
तथा राहुके सम्मुख रहनेसे मृत्यु हो जाती
है ॥ ३३-३४ है ॥
प्रिये! मैं तुमसे अब तिथि-राहुका वर्णन
करता हूँ। पूर्णिमाके बाद कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे
अग्निकोणसे लेकर ईशानकोणतक अर्थात्
कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथितक राहु पूर्वं दिशामें
रहता है। उसमें युद्ध करनेसे जय होती है। इसी
तरह ईशानसे अग्निकोणतक और नैऋ#त्यकोणसे
वायव्यकोणतक राहुका भ्रमण होता रहता है।
मेषादि राशियोंको पूर्वादि दिशामें रखना चाहिये।
इस तरह रखनेपर मेष, सिंह, धनु राशियाँ पूर्वमें;
वृष, कन्या, मकर-ये दक्षिणमें; मिथुन, तुला,
कुम्भ--ये पश्चिममें; कर्क, वृश्चिक, मीन--ये
उत्तरमें हो जाती हैं । सूर्यकी राशिसे सूर्यकी दिशा
जानकर सम्मुख सूर्ये रण करना मृत्युकारक
होता है ॥ ३५--३७॥
(भद्राकी तिथिका निर्णय बताते हैं--)
कृष्णपक्षमें तृतीया, सप्तमी, दशमो तथा चतुर्दशीको
*भद्रा' होती है। शुक्लपक्षमें चतुर्थी, एकादशी,
अष्टमी और पूर्णिमाकों "भद्रा" होती है। भद्राका
निवास अग्निकोणसे वाबव्यकोणतक रहता है।
अ, क, च, ट, त, प, य, श--ये आठ वर्ग होते
हैं, जिनके स्वामी क्रमसे सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल,
बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु ग्रह होते हैं। इन
ग्रहोंके वाहन क्रमसे गृध्र, उलूक, बाज, पिङ्गल,
कौशिक (उलूक), सारस, मयूर, गोरङ्क नामके
पक्षी हैं। पहले हवन करके मन्तरौको सिद्ध कर
लेना चाहिये। उच्चाटनमें मन्त्रोंका प्रयोग पान्नवरूपसे
करना चाहिये॥ ३८--४० ३ ॥
वश्य, ज्वर एवं आकर्षणे पल्लवका प्रयोग