* अध्याय १५७०
उव 77
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पंद्रहवाँ अध्याय
यदुकुलका संहार और पाण्डवोंका स्वर्गगमन
अग्निदेव कहते हैं-- ब्रह्मन्! जब युधिष्ठिर | उन सबको छीन लिया। यह भी अष्टावक्रके
राजसिंहासनपर विराजमान हो गये, तब धृतरा
गृहस्थ-आश्रमसे वानप्रस्थ-आश्रममें प्रविष्ट हो
वनम चले गये। [अथवा ऋषि्योके एक आश्रमसे
दूसरे आश्रमॉमें होते हए वे वनको गये ।] उनके साथ
देवी गान्धारी ओर पृथा (कुन्ती) भी थीं। विदुएजी
दावानलसे दग्ध हो स्वर्ग सिधोरे। इस प्रकार भगवान्
विष्णुने पृथ्वीका भार उतारा और धर्मकौ स्थापना
तथा अधर्मका नाश करनेके लिये पाण्डवोंको
निमित्त बनाकर दानव- दैत्य आदिका संहार किया ।
तत्पश्चात् भूमिका भार बढ़ानेवाले यादवकुलका
भी ब्राह्मणोंके शापके बहाने मूसलके द्वारा संहार
कर डाला। अनिरुद्धके पुत्र वज्रको राजाके पदपर
अभिषिक्तं किया। तदनन्तर देवताओकि अनुरोधसे
प्रभासक्षेत्रमें श्रीहरि स्वयं ही स्थूल शरीरकी लीलाका
संवरण करके अपने धामको पधारे ॥ १--४॥
वे इन् रलोक और ब्रह्मलोकमें स्वर्गवासी
देवताओंद्वारा पूजित होते हैं। बलभद्रजी शेषनागके
स्वरूप थे; अतः उन्होंने पातालरूपी स्वर्गका
आश्रय लिया। अविनाशी भगवान् श्रीहरि ध्यानी
पुरुषोकि ध्येय हैं। उनके अन्तर्धान हो जानेपर
समुद्रनै उनके निजी निवासस्थानको छोड़कर
शेष द्वारकापुरीको अपने जलमें डुबा दिया।
अर्जुनने मरे हुए यादवोँका दाह-संस्कार करके
उनके लिये जलाञ्जलि दी और धन आदिका दान
किया। भगवान् श्रीकृष्णकी रानिर्योको, जो पहले
अप्सराएँ थीं और अष्टावक्रके शापसे मानवीरूपमें
प्रकट हुई थीं, लेकर हस्तिनापुरको चले। मार्गमें
डंडे लिये हुए ग्वालोंने अर्जुनका तिरस्कार करके
शापसे ही सम्भव हुआ था। इससे अर्जुनके मनमें
बड़ा शोक हुआ। फिर महर्षि व्यासके सान्त्वना
देनेपर उन्हें यह निश्चय हुआ कि “भगवान्
श्रीकृष्णके समीप रहनेसे ही मुझमें बल था।'
हस्तिनापुरमें आकर उन्होंने भाइयोंसहित राजा
युधिप्ठिसे, जो उस समय प्रजावर्गका पालन
करते थे, यह सब समाचार निवेदन किया। वे
बोले--' भैया! वही धनुष है, वे ही बाण हैं, वही
रथ है और वे ही घोडे हैं; किंतु भगवान्
श्रीकृष्णके विना सब कुछ उसी प्रकार नष्ट हो
गया, जैसे अश्रोत्रियकों दिया हुआ दान।' यह
सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने राज्यपर परीक्षित्को
स्थापित कर दिया॥ ५-११॥
इसके बाद बुद्धिमान् राजा संसारकी अनित्यताका
विचार करके द्रौपदी तथा भादर्योको साथ ले
महाप्रस्थानके पथपर अग्रसर हुए। मार्गमें वे
श्रीहरिके अष्टोत्तरशत नामोंका जप करते हुए
यात्रा करते थे। उस महापथे क्रमशः द्रौपदी,
सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके
गिर पड़े। इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे
इद्रके द्वार लाये हुए रथपर आखूढ़ हो [ दिव्यरूपधारी ]
भाइयोंसहित स्वर्गको चले गये। वहाँ उन्होंने
दुर्योधन आदि सभी धृतराषटपुत्रोंको देखा । तदनन्तर
(उनपर कृपा करनेके लिये अपने धामसे पधार
हुए] भगवान् वासुदेवका भी दर्शन किया । इससे
उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। यह मैंने तुम्हें महाभारतका
प्रसङ्गं सुनाया है। जो इसका पाठ करेगा, वह
स्वर्गलोकमें सम्मानित होगा॥ १२--१५॥
इत प्रकार आदि आग्नेय महाएराणमें " आश्रमवासिक पर्वस्ते लेकर स्वगरिहण- परवन्त महाभारत-कथाका
संक्षित्त वर्णन ' नामक एंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १५ #
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