श्रवण, मूल, पुष्य--इन नक्षत्रम, रवि, मङ्गल,
वृहस्पति -इन वारो तथा कुम्भ, सिंह, मिथुन--
इन लग्नो पुंसवन-कर्म करनेका विधान है।
हस्त, मूल, मृगशिरा और रेवती नक्षत्रे, बुध
और शुक्र वारमें बालकोंका निष्कासन शुभ होता
है। रवि, सोम, बृहस्पति तथा शुक्र --इन दिनोंमें,
मूल नक्षत्रमें प्रथम बार ताम्बूल-भक्षण करना
चाहिये। शुक्र तथा बृहस्पति वारको, मकर और
मीन लग्ने, हस्तादि पाँच नक्षत्रे, पुष्यमें तथा
कृत्तिकादि तीन मक्षत्रोंमें अन्नप्राशन करना चाहिये।
अश्विनी, रेवती, पुष्य, हस्त, ज्येष्ठा, रोहिणी और
श्रवण नक्षत्रम नूतन अन्न और फलका भक्षण
शुभ होता है। स्वातौ तथा मृगशिरा नक्षत्रमें
ओषध-सेवन करना शुभ होता है।
( रोग-मुक्त-स्नान ) तीनों पूर्वा, मघा, भरणी,
स्वाती तथा श्रवणसे तीन नक्षत्रों, रवि, शनि
और मङ्गल -इन वारो रोग-विमुक्त व्यक्तिको
स्नान करना चाहिये ॥ १०-- १४ १॥
( यत््र-प्रयोग ) मिट्टीके चौकोर पट्टपर आठ
दिशाओंमें आठ ' हीं" कार और बीचमें अपना
नाम लिखे अथवा पार्थिव पट्ट या भोजपत्रपर
आठों दिशाओंमें "ही" लिखकर मध्यमें अपना
नाम गोरोचन तथा कुङ्कुमसे लिखे। ऐसे यन्त्रकों
वस्त्रमें लपेटकर गलेमें धारण करनेसे शत्रु निश्चय
ही वशमें हो जाते हैं। इसी तरह गोरोचन तथा
कुङ्कुमसे *श्रीं' "हीं ' मन्त्रद्वारा सम्पुटित नामको
आठ भूर्जपत्र-खण्डपर लिखकर पृथ्वीमें गाड़ दे
तो शीघ्र विदेश गया हुआ व्यक्ति वापस आता है
और उसी यन्त्रको हल्दीके रससे शिलापट्टपर
लिखकर नीचे मुख करके पृथ्वीपर रख दे तो
शत्रुका स्तम्भन होता है। "ॐ "हूं ' "सः" मन्त्रसे
सम्पुटित नाम गोरोचन तथा कुङ्कुपसे आठ
भूर्जपत्रोपर लिखकर रखा जाय तो मृत्युका
निवारण होता है । यह यन्त्र एक, पाँच और नौ
बार लिखनेसे परस्पर प्रेम होतः है। दो, छः या
बारह बार लिखनेसे वियुक्त व्यक्तियोंका संयोग
होता है और तीन, सात या ग्यारह बार लिखनेसे
लाभ होता. है ओर चार, आठ और बारह बार
लिखनेसे परस्पर शत्रुता होती है ॥ १५--२०॥
( भाव और तारा ) मेषादि लग्नोंसे तनु, धन,
सहज, सुहत्, सुत, रिपु, जाया, निधन, धर्म,
कर्म, आय, व्यय--ये बारह भाव होते है । अब
नौ तारा्ओंका बल बतलाता हूँ। जन्म, संपत्,
विपत्, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, मृत्यु, यैत्र ओर
अतिमैत्र-ये नौ तारे होते हैं। बुध, वृहस्पति,
शुक्र, रवि तथा सोम वारको ओर माघ आदि छः
मासोंमें प्रथम क्षौर-कर्म (बालकका मुण्डन)
कराना शुभ कहा गया है । बुधवार तथा गुरुवारको
एवं पुष्य, श्रवण और चित्रा नक्षत्रे कर्णवेध-
संस्कार शुभ होता है। पांचवें वर्षमे प्रतिपदा,
षष्ठी, रिक्ता और पूर्णिमा तिथियोंको एवं मङ्गलवारको
छोड़कर शेष वारोंमें सरस्वती, विष्णु ओर
लक्ष्मीका पूजन करके अध्ययन (अक्षरारम्भ)
करना चाहिये । माघसे लेकर छः मासतक अर्थात्
आषादृतक उपनयन- संस्कार शुभ होता हे । चूडाकरण
आदि कर्म श्रावण आदि छः मासोंमें प्रशस्त नहीं
माने गये हैं। गुरु तथा शुक्र अस्त हो गये हों और
चन्द्रमा क्षीण हों तो यज्ञोपवीत- संस्कार करनेसे
बालककी मृत्यु अथवा जडता होती है, ऐसा
संकेत कर दे। क्षौरे कहे हुए नक्षत्रोंमें तथा शुभ
ग्रहके दिनोंमें समावर्तन - संस्कार करना शुभ होता
है॥ २१--२८॥
( विविध मुहूर्त-- ) लग्नमें शुभ ग्रहोंकी
राशि हो और लग्नमें शुभ ग्रह बैठे हों या उसे
देखते हों तथा अश्विनी, मघा, चित्रा, स्वाती,
भरणी, तीनों उत्तरा, पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हों
तो ऐसे समयमें धनुर्वेदका आरम्भ शुभ होता है।
भरणी, आद्रा, मधा, आश्लेषा, कृत्तिका,
पूर्वाफाल्गुनी--इन नक्षत्रम जीवनकी इच्छ रखनेवाला
पुरुष नवीन वस्त्र धारण न करे । बुध, बृहस्पति
तथा शुक्र --इन दिनोंमें वस्त्र धारण करना चाहिये ।
विवाहादि माङ्गलिक कार्योपिं वस्त्र-धारणके लिये