* अध्याय १२९ *
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एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय
ज्योतिःशास्त्रका कथन
[ वर-वधूके गुण और विवाहादि संस्कारोंके कालका विचार; शत्रुके वशीकरण एवं
स्तम्भन-सम्बन्धी मन्त्र; ग्रहण-दान; सूर्य-संक्रान्ति एवं ग्रहोकी महादशा ]
अग्निदेव कहते हैं--मुने! अब मैं शुभ- | सूर्यके क्षेत्र (सिंह)-में गुरु हो तो विवाहको
अशुभका विवेक प्रदान करनेवाले संक्षिप्त ज्यौतिष-
शास्त्रका वर्णन करूँगा, जो चार लक्ष श्लोकवाले
विशाल ज्यौतिषशास्त्रका सारभूत अंश है, जिसे
जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। यदि
कन्याकी राशिसे वरकी राशिसंख्या परस्पर छ:-
आठ, नौ-पाँच और दो-बारह हो तो विवाह शुभ
नहीं होता है। शेष दस-चार, ग्यारह-तीन और
सम सप्तक (सात-सात) हो तो विवाह शुभ होता
है। यदि कन्या और वरकी राशिके स्वामियोंमें
परस्पर मित्रता हो या दोनोंकी राशियोंका एक ही
स्वामी हो, अथवा दोनोंकी ताराओं (जन्म-
नक्षत्रों)-में मैत्री हो तो नौ-पाँच तथा दो-
बारहका दोष होनेपर भी विवाह कर लेना
चाहिये; किंतु षडष्टक (छ:-आठ)-के दोषमें
तो कदापि विवाह नहीं हो सकता।' गुरु-शुक्रके
अस्त रहनेपर विवाह करनेसे वधूके पतिका निधन
हो जाता है। गुरु-क्षेत्र (धनु, मीन)-में सूर्य हो एवं
अच्छा नहीं मानते हैं; क्योंकि वह विवाह कन्याके
लिये बैधव्यकारक होता है ॥ १--५॥
( संस्कार-मुहूर्त ) बृहस्पतिके वक्र रहनेपर
तथा अतिचारी होनेपर विवाह तथा उपनयन नहीं
करना चाहिये। आवश्यक होनेपर अतिचारके
समय त्रिपक्ष अर्थात् डेढ़ मास तथा वक्र होनेपर
चार मास छोड़कर शेष समयमे विवाह -ठपनयनादि
शुभ संस्कार करने चाहिये। चैत्र-पौषमें, रिक्ता
तिथिमे, भगवानूके सोनेपर, मङ्गल तथा रविवारे,
चन्द्रमाके क्षीण रहनेपर भी विवाह शुभ नहीं होता
दै। संध्याकाल (गोधूलि-समय) शुभ होता है।
रोहिणी, तीनों उत्तरा, मूल, स्वाती, हस्त, रेवती -
इन नक्षत्रम, तुला लग्नको छोड़कर मिथुनादि
द्विस्वभाव एवं स्थिर लग्नोंमें विवाह करना
शुभ होता है। विवाह, कर्णवेध, उपनयन तथा
पुंसवन संस्कारे, अन्न-प्राशन तथा प्रथम चूड़ाकर्ममें
- विद्धनक्षत्रकोर त्याग देना चाहिये ॥ ६--९ ॥
१. नारदपुराण, पूर्वभागण, द्वितीयप्यद्, अध्याय ५६, शलोक ५०४ में भी यहौ बात कहौ गयी है।
२. विद्धतक्षत्रके परिज्ञानके लिये नारदपुराण,
अध्याय ५६ के स्लोक ४८३-८४ में पश्चणलाका-
येका इस प्रकार वर्णन है-पाँच रेखाएँ पड़ी
और पाँच रेखाएँ"खड़ी खौंचकर, दो-दो रेखाएँ
कोणोंमें खाँचने (बन्ने) - मे पञ्जजललाका-चक्र
बनता है। इस चक्रके ईशानकोणवाली दूसरी
रखे कृततिकाको लिखकर आगे प्रदक्षिणक्रमसे
रोहिणी आदि अभिजितसहित सम्पूर्ण नक्षर्त्रोका
उल्लेख करे । जिस रेखामें ग्रह हो, उसी रेखाकी
दूसरी औत्वासा नक्षत्र विद्ध समझा जाता है। इस
घनण्श०
विशस्व चि० ह० ठभ
पू क दे आ> भठ
पू० म०