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* अध्याय १२९ *

२५९

एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय

ज्योतिःशास्त्रका कथन

[ वर-वधूके गुण और विवाहादि संस्कारोंके कालका विचार; शत्रुके वशीकरण एवं

स्तम्भन-सम्बन्धी मन्त्र; ग्रहण-दान; सूर्य-संक्रान्ति एवं ग्रहोकी महादशा ]

अग्निदेव कहते हैं--मुने! अब मैं शुभ- | सूर्यके क्षेत्र (सिंह)-में गुरु हो तो विवाहको

अशुभका विवेक प्रदान करनेवाले संक्षिप्त ज्यौतिष-

शास्त्रका वर्णन करूँगा, जो चार लक्ष श्लोकवाले

विशाल ज्यौतिषशास्त्रका सारभूत अंश है, जिसे

जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। यदि

कन्याकी राशिसे वरकी राशिसंख्या परस्पर छ:-

आठ, नौ-पाँच और दो-बारह हो तो विवाह शुभ

नहीं होता है। शेष दस-चार, ग्यारह-तीन और

सम सप्तक (सात-सात) हो तो विवाह शुभ होता

है। यदि कन्या और वरकी राशिके स्वामियोंमें

परस्पर मित्रता हो या दोनोंकी राशियोंका एक ही

स्वामी हो, अथवा दोनोंकी ताराओं (जन्म-

नक्षत्रों)-में मैत्री हो तो नौ-पाँच तथा दो-

बारहका दोष होनेपर भी विवाह कर लेना

चाहिये; किंतु षडष्टक (छ:-आठ)-के दोषमें

तो कदापि विवाह नहीं हो सकता।' गुरु-शुक्रके

अस्त रहनेपर विवाह करनेसे वधूके पतिका निधन

हो जाता है। गुरु-क्षेत्र (धनु, मीन)-में सूर्य हो एवं

अच्छा नहीं मानते हैं; क्योंकि वह विवाह कन्याके

लिये बैधव्यकारक होता है ॥ १--५॥

( संस्कार-मुहूर्त ) बृहस्पतिके वक्र रहनेपर

तथा अतिचारी होनेपर विवाह तथा उपनयन नहीं

करना चाहिये। आवश्यक होनेपर अतिचारके

समय त्रिपक्ष अर्थात्‌ डेढ़ मास तथा वक्र होनेपर

चार मास छोड़कर शेष समयमे विवाह -ठपनयनादि

शुभ संस्कार करने चाहिये। चैत्र-पौषमें, रिक्ता

तिथिमे, भगवानूके सोनेपर, मङ्गल तथा रविवारे,

चन्द्रमाके क्षीण रहनेपर भी विवाह शुभ नहीं होता

दै। संध्याकाल (गोधूलि-समय) शुभ होता है।

रोहिणी, तीनों उत्तरा, मूल, स्वाती, हस्त, रेवती -

इन नक्षत्रम, तुला लग्नको छोड़कर मिथुनादि

द्विस्वभाव एवं स्थिर लग्नोंमें विवाह करना

शुभ होता है। विवाह, कर्णवेध, उपनयन तथा

पुंसवन संस्कारे, अन्न-प्राशन तथा प्रथम चूड़ाकर्ममें

- विद्धनक्षत्रकोर त्याग देना चाहिये ॥ ६--९ ॥

१. नारदपुराण, पूर्वभागण, द्वितीयप्यद्‌, अध्याय ५६, शलोक ५०४ में भी यहौ बात कहौ गयी है।

२. विद्धतक्षत्रके परिज्ञानके लिये नारदपुराण,

अध्याय ५६ के स्लोक ४८३-८४ में पश्चणलाका-

येका इस प्रकार वर्णन है-पाँच रेखाएँ पड़ी

और पाँच रेखाएँ"खड़ी खौंचकर, दो-दो रेखाएँ

कोणोंमें खाँचने (बन्ने) - मे पञ्जजललाका-चक्र

बनता है। इस चक्रके ईशानकोणवाली दूसरी

रखे कृततिकाको लिखकर आगे प्रदक्षिणक्रमसे

रोहिणी आदि अभिजितसहित सम्पूर्ण नक्षर्त्रोका

उल्लेख करे । जिस रेखामें ग्रह हो, उसी रेखाकी

दूसरी औत्वासा नक्षत्र विद्ध समझा जाता है। इस

घनण्श०

विशस्व चि० ह० ठभ

पू क दे आ> भठ

पू० म०

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