हजार योजन लंबा है। दोनों धुरोके परिमाणके
तुल्य ही उसके युगाद्धोंका* परिमाण है ॥ २१--२५ ॥
उस रथके दो धुरॉमेंसे जो छोटा है बह, और
उसका युगाद्धं ध्रुवके आधारपर स्थित है। उत्तम
त्रतका पालन करनेवाले मुने! गायत्री, वृहती,
उष्णिक्, जगती, ्र्टुप्, अनुष्टुप् ओर पंक्ति -ये
सात छन्द ही सूर्यदेवके सात घोडे कहे गये हैं।
सूर्यका दिखायी देना उदय है और उनका दृष्टिसे
ओझल हो जाना ही अस्तकाल है, ऐसा जानना
चाहिये। वसिष्ठ ! जितने प्रदेशमे ध्रुव स्थित है,
पृथ्वीसे लेकर उस प्रदेश-पर्यन्त सम्पूर्ण देश
प्रलयकालमें नष्ट हो जाता है । सप्तर्षियोंसे उत्तर
दिशामें ऊपरकी ओर जहाँ ध्रुव स्थित है, आकाशम
वह दिव्य एवं प्रकाशमान स्थान ही विराट्रूपधारी
भगवान् विष्णुका तीसरा पद है। पुण्य और पापके
क्षीण हो जानेषर दोषरूपी पङ्कसे रहित संयतचित्त
महात्माओंका यही परम उत्तम स्थान है । इस विष्णुपदसे
ही गङ्गाका प्राकट्य हुआ है, जो स्मरणमात्रसे
सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली है ॥ २६--२९१॥
आकाशम जो शिशुमार ( संस )-की आकृतिवाला
ताराओंका समुदाय देखा जाता है, उसे भगवान्
विष्णुका स्वरूप जानना चाहिये । ठस शिशुमारचक्रके
पुच्छभागमें ध्रुवकी स्थिति है । यह ध्रुव स्वयं घूमता
हुआ चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रहोंको धुमाता है।
भगवान् सूर्यका वह रथ प्रतिमास भिन्न-भिन्न आदित्य-
देवता, श्रेष्ठ ऋषि, गन्धर्व, अप्सर, ग्रामणी (यक्ष),
सर्प तथा राक्सोँसे अधिष्ठित होता है । भगवान् सूर्य
ही सर्दी, गर्मी तथा जल-वषकि कारण हैं। वे ही
ऋग्वेद, यजुर्वेद ओर सामवेदमय भगवान् विष्णु हैं;
वे ही शुभ और अशुभके कारण हैँ ॥ ३०--३२६॥
चन्द्रमाका रथ तीन पहियोंसे युक्त है। उस
रथके बायें और दाये भागम कुन्द-कुसुमकौ
भाँति श्वेत रंगके दस घोडे जुते हुए हैं। उसी रथके
द्वारा वे चन्द्रदेव नक्षत्रलोक विचरण करते है ।
तैंतीस हजार तीस सौ तैंतीस (३६३३३) देवता
चन्द्रदेवकी अमृतमयी कलाओंका पान करते है ।
अमावास्याके दिन * अमा' नामक एक रश्मि
(कला) -में स्थित हुए पितृगण चनद्रमाकी बची
हुई दो कलाओमेंसे एकमात्र अमृतमयी कलाका
पान करते है । चन्द्रमाके पुत्र बुधका रथ वायु ओर
अग्निमिय द्रव्यका बना हुआ है। उसमें आठ
शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं। उसी रथसे बुध
आकाशमें विचरण करते है ॥ ३३-३६॥
शुक्रके रथमें भी आठ घोड़े जुते होते है । मङ्गलके
रथे भी उतने ही घोड़े जोते जाते हैं। बृहस्पति और
शनैश्वरके रथ भी आठ-आठ घोड़ोंसे युक्त हैं। राहु
और केतुके रथोंमें भी आठ-आठ ही घोड़े जोते
जाते हैं। विप्रवर! भगवान् विष्णुका शरीरभूत जो
जल है, उससे पर्वत और समुद्रादिके सहित कमलके
समान आकास्वाली पृथ्वी उत्पन्न हुई। ग्रह, नक्षत्र,
तीनों लोक, नदी, पर्वत, समुद्र और वन -ये सब
भगवान् विष्णुके ही स्वरूप हैं। जो है और जो नहीं
है, वह सब भगवान् विष्णु ही हैं। विज्ञानका विस्तार
भी भगवान् विष्णु ही हैं। विज्ञाससे अतिरिक्त किसी
वस्तुकी सत्ता नहीं है। भगवान् विष्णु ज्ञानस्वरूप
ही हैं। वे ही परमपद हैं। मनुष्यकों वही करना
चाहिये, जिससे चित्तशुद्धिके द्वारा विशुद्ध ज्ञान प्राप्त
करके वह विष्णुस्वरूप हो जाय। सत्य एवं अनन्त
ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही 'विष्णु' हैं॥ ३७ --४० ‡॥
जो इस भुवनकोशके प्रसंगका पाठ करेगा,
वह सुखस्वरूप परमात्मपदको प्राप्त कर लेगा।
अब ज्यौतिषशास्त्र आदि विद्याओंका वर्णन करूँगा।
उसमें विवेचित शुभ ओौर अशुभ--सबके स्वामी
भगवान् श्रीहरि ही है ॥ ४१-४२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें भृवनकोशका वर्णन” नामक
एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ# १२०॥
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* आधे जुएको युगार्द्ध कहते हैं।