सूर्यसे लाख योजनकी दूरीपर चन्द्रमा विराजमान
हैं। चन्द्रमासे एक लाख योजन ऊपर नक्षत्र-
मण्डल प्रकाशित होता है। नक्षत्रमण्डलसे दो
लाख योजन ऊँचे बुध विराजमान हैं। बुधसे दो
लाख योजन ऊपर शुक्र हैं। शुक्रसे दो लाख
योजनकी दूरीपर मङ्गलका स्थान है। मङ्गलसे दो
लाख योजन ऊपर बृहस्पति हैं। बृहस्पतिसे दो
लाख योजन ऊपर शबनैश्वरका स्थान है। उनसे
लाख योजन ऊपर सप्तर्षियोंका स्थान है। सप्तर्षियोंसे
लाख योजन ऊपर ध्रुव प्रकाशित होता है।
त्रिलोकीकी इतनी ही ऊँचाई है, अर्थात् त्रिलोकी
(भूर्भुवः स्वः)-के ऊपरी भागकी चरम सीमा
ध्रुव ही है॥ ५--८ ॥
ध्रुवसे कोटि योजन ऊपर " महर्लोक ' है, जहाँ
कल्पान्तजीवी भृगु आदि सिद्धगण निवास करते
है। महर्लोकसे दो करोड़ ऊपर “जनलोक'की
स्थिति है, जहाँ सनक, सनन्दन आदि सिद्ध पुरुष
निवास करते हैं। जनलोकसे आठ करोड़ योजन
ऊपर ' तपोलोक " है, जहाँ वैज नामवाले देवता
निवास करते हैं। तपोलोकसे छानबे करोड़
योजन ऊपर ' सत्यलोक" विराजमान है । सत्यलोके
पुनः मृत्युके अधीन न होनेवाले पुण्यात्मा देवता
एवं ऋषि-मुनि निवास करते हैं। उसीको ' ब्रह्मलोक”
भी कहा गया है। जहाँतक पैरोंसे चलकर जाया
जाता है, वह सब ' भूलोक है। भूलोकसे सूर्यमण्डलके
बीचका भाग ' भुवर्लोक" कहा गया है। सूर्यलोकसे
ऊपर ध्रुवलोकतकके भागको 'स्वर्गलोक' कहते
हैं। उसका विस्तार चौदह लाख योजन है। यही
त्रैलोक्य है और यही अण्डकटाहसे घिरा हुआ
विस्तृत ब्रह्माण्ड है। यह ब्रह्माण्ड क्रमशः जल,
अग्नि, वायु और आकाशरूप आवरणोंद्वारा बाहरसे
घिरा हुआ है। इन सबके ऊपर अहंकारका
आवरण है। ये जल आदि आवरण उत्तरोत्तर
दसगुने बड़े हैं। अहंकाररूप आवरण महत्तत्त्वमय
आवरणसे घिरा हुआ है ॥ ९--१३॥
महामुने! ये सारे आवरण एकसे दूसरेके
क्रमसे दसगुने बड़े हैं। महत्तत्वको भी आवृत
करके प्रधान (प्रकृति) स्थित है। बह अनन्त है;
क्योंकि उसका कभी अन्त नहीं होता। इसीलिये
उसकी कोई संख्या अथवा माप नहीं है। मुने!
वह सम्पूर्ण जगत॒का कारण है। उसे ही * अपरा
प्रकृति” कहते हैं। उसमें ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड
उत्पन्न हुए हैं। जैसे काठमें अग्नि और तिलमें तेल
रहता है, उसी प्रकार प्रधानमें स्वयंप्रकाश चेतनात्मा
व्यापक पुरुष विराजमान है॥ १४-१६ ३ ॥
महाज्ञान मुने! ये संश्रयधर्मी (परस्पर संयुक्त
हुए) प्रधान और पुरुष सम्पूर्ण भूतोंकी आत्मभूता
विष्णुशक्तिसे आबृत हैं। महामुने ! भगवान् विष्णुकी
स्वरूपभूता वह शक्ति ही प्रकृति और पुरुषके
संयोग और वियोगमें कारण है। वही सृष्टिके
समय उनमें क्षोभका कारण बनती है। जैसे जलके
सम्पर्के आयी हुई वायु उसकी कर्णिकाओंमें
व्याप्त शीतलताको धारण करती है, उसी प्रकार
भगवान् विष्णुकी शक्ति भी प्रकृति-पुरुषमय
जगत्को धारण करती है । विष्णु-शक्तिका आश्रव
लेकर ही देवता आदि प्रकट होते है । वे भगवान्
विष्णु स्वयं ही साक्षात् ब्रह्म हैं, जिनसे इस सम्पूर्ण
जगत्की उत्पत्ति होती है ॥ १७--२० ‡॥
मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यदेवके रथका विस्तार नौ सहस्र
योजन है तथा उस रथका ईषादण्ड ( हरसा) इससे
दूना बड़ा अर्थात् अठारह हजार योजनका है ।
उसका धुरा डेढ करोड सात लाख योजन लंबा
है, जिसमें उस रथका पहिया लगा हुआ है । उसमें
पूर्वाह्न, मध्याह और अपराह्वरूप तीन नाभियाँ है ।
संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और
वत्सर --ये पाँच प्रकारके वर्ष उसके पाँच अरे हैं।
छहों ऋतुएँ उसकी छ: नेमियाँ हैं और उत्तर-
दक्षिण दो अयन उसके शरीर हैं। ऐसे संवत्सरमय
रथचक्रमें सम्पूर्णं कालचक्र प्रतिष्ठित है। महामते !
भगवान् सूर्यके रथका दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस