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[) अग्निपुराण (१
उदयगिरि, जलधर, रैवत, श्याम, कोद्रक,
करते हैँ । पुष्करद्वीप स्वादिष्ट जलवाले समुद्रसे
आम्बिकेय और सुरम्य पर्वत केसरी-ये सात | धिरा हुआ है। उस समुद्रका विस्तार उस
वहाँके मर्यादापर्वत हैं तथा सात ही वहाँकी
प्रसिद्ध नदियाँ हैं'। मग, मगध, मानस्य और
मन्दग-ये वहाँके ब्राह्मण आदि वर्ण हैं, जो
सूर्यरूपधारी भगवान् नारायणकी आराधना करते
हैं। शाकद्वीप क्षीरसागरसे घिरा हुआ है । क्षीरसागर
पुष्करद्वीपसे परिवेष्टित है। वहाँके अधिकारी
राजा सवनके दो पुत्र हुए, जिनके नाम थे--
महावीत और धातकि। उन्हीकि नामसे वहाँके दो
वर्ष प्रसिद्ध हैं॥ २०--२२॥
वहाँ एक ही मानसोत्तर नामक वर्षपर्वत
विद्यमान है, जो उस वर्षके मध्यभागमें बलयाकार
स्थित है। उसका विस्तार कई सहस्र योजन
है'। ऊँचाई भी विस्तारके समान ही है।
वहाँके लोग दस हजार वर्षोतक जीवन धारण
करते हैँ । वहां देवता लोग ब्रह्माजीकी पूजा
द्वीपके समान ही है । महामुने! समुद्रम जो जल
है, वह कभी घटता-बढ़ता नहीं है । शुक्ल
ओर कृष्ण-दोनों पक्षोमिं चन्द्रमाके उदय और
अस्तकालमें केवल पाँच सौ दस अङ्गुलतक
समुद्रके जलका घटना और बढ़ना देखा जाता है
(परंतु इससे जलमें न्यूनता या अधिकता नहीं
होती है) ॥ २३--२६ ॥
मीठे जलवाले समुद्रके चारों ओर उससे दुगुने
प्रिमाणवाली भूमि सुवर्णमयी है, किंतु वहाँ
कोई भी जीव-जन्तु नहीं रहते हैं। उसके बाद
लोकालोकपर्वत है, जिसका विस्तार दस हजार
योजन है। लोकालोकपर्वत एक ओरसे अन्धकारद्वाय
आवृत है और वह अन्धकार अण्डकटाहसे
आवृत है। अण्डकटाहसहित सारी भूमिका विस्तार
पचास करोड़ योजन है॥ २७-२८ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुयाणयें महाद्वीप आदिका वर्ण” तरामक
एक सौ उन्नीसकां अध्याय पूरा हुआ॥ ११९॥
एक सौ बीसवाँ अध्याय
भुवनकोश-वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ ! भूमिका विस्तार
सत्तर हजार योजन बताया गया है । उसकी ऊँचाई
दस हजार योजन है । पृथ्वीके भीतर सात पाताल
हैं। एक-एक पाताल दस-दस हजार योजने
विस्तृत है । सात पातालेकि नाम इस प्रकार हैं--
अतल, वितल, नितल, प्रकाशमान महातल,
सुतल, तलातल ओर सातवाँ रसातल या पाताल ।
इन पातालोंकी भूमियाँ क्रमशः काली, पीली,
लाल, सफेद, कंकरीली, पथरीली और सुवर्णमयी
हैं। वे सभी पाताल बड़े रमणीय हैं। उनमें दैत्य
और दानव आदि सुखपूर्वकं निवास करते हैं।
समस्त पातालोंके नीचे शेषनाग विराजमान हैं,
जो भगवान् विष्णुके तमोगुण-प्रधान विग्रह हैं।
उनमें अनन्त गुण हैं, इसीलिये उन्हें ' अनन्त' भी
कहते हैं। वे अपने मस्तकपर इस पृथ्वीको धारण
करते हैं॥ १--४॥
पृथ्वीके नीचे अनेक नरक हैं, परंतु जो
भगवान् विष्णुका भक्त है, वह उन नरके नहीं
पड़ता है। सूर्यदेवसे प्रकाशित होनेवाली पृथ्वीका
जितना विस्तार है, उतना ही नभोलोक (अन्तरिक्ष
या भुवर्लोक)-का विस्तार माना गया है। वसिष्ठ!
पृथ्वीसे एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है।
१. पुणणान्तरमें इन नदियोंके नाम इस प्रकार मिलते है ~ सुकुमारी, कुमारी, नलिनी. धेनुक्य, इक्षु, वेणुका और गभस्ति ।
२. विष्णुपुराणे इसकौ ऊँचाई और विस्तार ~ दोनो ही पचास हजार योजन बताये गये ई । देखिये विष्णुपुराण २।४।५६।