Home
← पिछला
अगला →

पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचा देता है। विशाल भी

गयाशीर्षमें पिण्डदान करनेसे पुत्रवान्‌ हुए।

कहते हैं, विशाला नगरीमें एक. विशाल '

नामसे प्रसिद्ध राजपुत्र थे। उन्होंने ब्राह्मणोंसे

पूछा-- मुझे पुत्र आदिकी उत्पत्ति किस प्रकार

होगी ?' यह सुनकर ब्राह्मणोंने विशालसे कहा--

"गया पिण्डदान करनेसे तुम्हें सब कुछ प्राप्त

होगा।' तब विशालने भी गयाशीर्षमें पितरोंको

पिण्डदान किया। उस समय आकाशमें उन्हें तीन

पुरुष दिखायी दिये, जो क्रमश: शेत, लाल और

काले थे। विशालने उनसे पूछा-'आप लोग

कौन है?" उनमेंसे एक श्वेतवर्णवाले पुरुषने

विशालसे कहा--'मैं तुम्हारा पिता हूँ; मेरा वर्ण

शेत है; मैं अपने शुभकर्मसे इन्द्रलोकमें गया था।

बेटा! ये लाल रंगवाले मेरे पिता और काले

रंगवाले मेरे पितामह थे। ये नरकमें पड़े थे; तुमने

हम सबको मुक्त कर दिया। तुम्हारे पिण्डदानसे

हमलोग ब्रह्मलोकमें जा रहे हैं।' यों कहकर वे

तीनों चले गये। विशालको पुत्र-पौत्र आदिकी

प्राप्ति हुई। उन्होंने राज्य भोगकर मृत्युके पश्चात्‌

भगवान्‌ श्रीहरिको प्राप्त कर लिया॥ ४९--५९॥

एक प्रेतोंका राजा था, जो अन्य प्रेतोंक साथ

बहुत पीड़ित रहता था। उसने एक दिन एक

वणिकूसे अपनी मुक्तिके लिये इस प्रकार कहा--

" भाई ! हमारे द्वारा एक ही पुण्य हुआ था, जिसका

फल यहाँ भोगते हैं । पूर्वकालमें एक बार श्रवण-

नक्षत्र और द्वादशी तिथिका योग आनेपर हमने

अन्न और जलसहित कुम्भदान किया था; वही

प्रतिदिन मध्याह्के समय हमारी जीवन-रक्षाके

लिये उपस्थित होता है। तुम हमसे धन लेकर

गया जाओ और हमारे लिये पिण्डदान करो।'

वणिकूने उससे धन लिया और गयामें उसके

निमित्त पिण्डदान किया। उसका फल यह हुआ

कि वह प्रेतराज अन्य सब प्रेतके साथ मुक्त

होकर श्रीहरिके धाममें जा पहुँचा। गयाशीर्षमें

पिण्डदान करनेसे मनुष्य अपने पितरोंका तथा

अपना भी उद्धार कर देता है॥६०--६३॥

वहाँ पिण्डदान करते समय इस प्रकार कहना

चाहिये--' मेरे पिताके कुलमें तथा माताके वंशमें

और गुरु, श्वशुर एवं बन्धुजनोकि वंशमें जो

मृत्युको प्राप्त हुए हैं, इनके अतिरिक्त भी जो

बन्धु-बान्धव मरे हैं, मेरे कुलमें जिनका श्राद्ध-

कर्म-पिण्डदान आदि लुप्त हो गया है, जिनके

कोई स्त्री-पुत्र नहीं रहा है, जिनके श्राद्ध-कर्म

नहीं होने पाये हैं, जो जन्मके अंधे, लैंगड़े और

विकृत रूपवाले रहे हैं, जिनका अपक्त गर्भके

रूपमें निधन हुआ है, इस प्रकार जो मेरे कुलके

ज्ञात एवं अज्ञात पितर हों, वे सब मेरे दिये हुए

इस पिण्डदानसे सदाके लिये तृप्त हो जाये। जो

कोई मेरे पितर प्रेतरूपसे स्थित हों, वे सब यहाँ

पिण्ड देनेसे सदाके लिये तृप्तिको प्राप्त हों ।' अपने

कुलको तारनेवाली सभी संतानोंका कर्तव्य है कि

वे अपने सम्पूर्ण पितरोंके उद्देश्यसे वहाँ पिण्ड दें

तथा अक्षय लोककी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अपने

लिये भी पिण्ड अवश्य देना चाहिये*॥ ६४--६८ ॥

बुद्धिमान्‌ पुरुष पाँचवें दिन 'गदालोल'

नामक तीर्थमें स्नान करे। उस समय इस मन्त्रका

पाठ करे--' भगवान्‌ जनार्दन ! जिसमें आपकी

गदाका प्रक्षालन हुआ था, उस अत्यन्त पावन

*गदालोल' नामक तीर्थम मैं संसाररूपी रोगकी

शान्तिके लिये स्नान करता हूँ" ॥ ६९ \ ॥

“अक्षय स्वर्ग प्रदान करनेवाले अक्षयवटको

नमस्कार है। जो पिता-पितामह आदिके लिये

अक्षय आश्रय है तथा सब पापोंका क्षय करनेवाला

* पिण्डो देयस्तु सर्वेभ्यः सर्व्वे कुखतारकैः । आत्मनस्तु तथा देयो ह्यं लोकमिच्छता ॥ (अग्तिपु० ११५।६८)

← पिछला
अगला →