रडड
वहाँ मतङ्ग मुनिके श्रेष्ठ आश्रममें मतज़ज-वापीके
जलमें स्नान करके श्राद्धकर्ता पुरुष पिण्डदान
करे। वहां मतङ्गे श्वर एवं सुसिद्धेश्वरको मस्तक
झुकाकर इस प्रकार कहे --' सम्पूर्ण देवता प्रमाणभूत
होकर रहें, समस्त लोकपाल साक्षी हों, मैंने इस
मतड्भ-तीर्थमें आकर पितरोंका उद्धार कर दिया।'
तत्पश्चात् ब्राह्म-तीर्थ नामक कूपमें स्नान, तर्पण
और श्राद्ध आदि केरे। उस कूप और यूपके
मध्यभागमें किया हुआ श्राद्ध सौ पीढ़ियोंका
उद्धार करनेवाला है। वहाँ धर्मात्मा पुरुष महाबोधि-
वृक्षको नमस्कार करके स्वर्गलोकका भागी होता
है। तीसरे दिन नियम एवं त्रतका पालन करनेवाला
पुरुष “ब्रह्म-सरोवर” नामक तीर्थमें- स्नान करे।
उस समय इस प्रकार प्रार्थना करे--' मैं क्रह्मर्पियोंद्वारा
सेवित ब्रह्म-सरोबर-तीर्थमें पितरोंको ब्रह्मलोकको
प्राप्ति करानेके लिये स्नान करता हूँ।' श्राद्धकर्ता
पुरुष तर्पण करके पिण्डदान दे। फिर वृक्षको
सींचे। जो वाजपेय-यज्ञका फल पाना चाहता हो,
वह ॒ब्रह्माजीद्रारा स्थापित यूपकी प्रदक्षिणा
करे ॥ ३१--३९॥
उस तीर्थमें एक मुनि रहते थे, वे जलका घड़ा
और कुशका अग्रभाग हाथमे लिये आमके पेडकी
जडे पानी देते थे। इससे आम भी सचि गये
और पितरोंकी भी तृप्ति हुई। इस प्रकार एक ही
क्रिया दो प्रयोजन सिद्ध करनेवाली हो गयी।*
ब्रह्माजीको नमस्कार करके मनुष्य अपनी सौ
पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। चौथे दिन फल्गु-
तीर्थम स्नान करके देवता आदिका तर्पण करे।
फिर गयाशीर्षमें श्राद्ध और पिण्डदान करें।
गयाका क्षेत्र पाँच कोसका है। उसमें एक कोस
केवल “गयाशीर्ष' है। उसमें पिण्डदान करके
क अग्निपुराण क
मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर सकता
है । परम बुद्धिमान् महादेवजोने मुण्डपृष्ठमें अपना
पैर रखा है। मुण्डपृष्ठे ही गयासुरका साक्षात्
सिर है, अतएव उसे ' गया-शिर' कहते हैं। जहाँ
साक्षात् गयाशीर्ष है, वहीं फल्गु-तीर्थका आश्रय
है। फल्गु अमृतकी धारा बहाती है । वहाँ पितरोंके
उद्देश्से किया हुआ दान अक्षय होता है।
दशाश्चमेध-तीर्थमे स्नान तथा ब्रह्माजीका दर्शन
करके महादेवजीके चरण (रुद्रपाद)-का- स्पर्श
करनेपर मनुष्य पुनः इस लोकमें जन्म नहीं लेता।
गयाशीर्षमें शमोके पत्ते-बराबर पिण्ड देनेसे भी
नरकोमें पड़े हुए पितर स्वर्गको चले जाते हैं और
स्वर्गवासी पितरोंको मोक्षकी प्राति होती है। वहाँ
खीर, आटा, सत्तू, चरू और चावलसे पिण्डदान
करे। तिलमिश्रित गेहूँसे भी रुद्रपादमें पिण्डदान
करके मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर
सकता है ॥ ४०--४८॥
इसी प्रकार “बिष्णुपदी 'में भी श्राद्ध और
पिण्डदान करनेवाला पुरुष पितृ-ऋणसे छुटकारा
पाता है और पिता आदि ऊपरकी सौ पीढ़ियों
तथा अपनेको भी तार देता है । ' ब्रह्मपद 'में आद्ध
करनेवाला मानव अपने पितरोंको ब्रह्मलोकमें
पहुँचाता है। दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य-अग्नि तथा
आहवनीय-अग्निके स्थानम श्राद्ध करनेवाला पुरुष
यज्ञफलका भागी होता है । आवसथ्याग्नि, चन्द्रमा,
सूर्य, गणेश, अगस्त्य और कार्तिकेयके स्थाने
श्राद्ध करनेवाला मनुष्य अपने कुलका उद्धार कर
देता है। मनुष्य सूर्यके रथको नमस्कार करके
कर्णादित्यको मस्तक झुकावे। कनकेश्वरके पदको
प्रणाम करके गया-केदार- तीर्थको नमस्कार करे ।
इससे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पाकर अपने
* एको मुनिः कुम्भकुशाग्रहस्त आनस्य मूले सलिलं ददाति । श्वप्ना छं सिक्ताः पितर तृषा एका क्रिया दरपर्थकरौ प्रसिद्धा ॥
(अग्नि पु० १६९५।४०)