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एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय

गया-यात्राकी विधि

अग्निदेव कहते हैं-- यदि मनुष्य गया जनेको| मुण्डन और उपवास--यह सब तीर्थोंके लिये

उद्यत हो तो विधिपूर्वक श्राद्ध करके तीर्थयात्रीका

वेष धारणकर अपने गाँवकी परिक्रमा कर ले;

फिर प्रतिदिन पैदल यात्रा करता रहे। मन और

इन्द्रियोंकों बशमें रखे। किसीसे कुछ दान न ले।

गया जानेके लिये घरसे चलते ही पग-पगपर

पितरोंके लिये स्वर्गमें जानेकी सीढ़ी बनने लगती

है। यदि पुत्र (पितरोंका श्राद्ध करनेके लिये)

गया चला जाय तो उससे होनेवाले पुण्यके सामने

ब्रह्मज्ञानकौ क्या कीमत है? गौओंको संकटसे

छुड़ानेके लिये प्राण देनेपर भी क्या उतना पुण्य

होना सम्भव है? फिर तो कुरुक्षेत्रमें निवास

करनेकी भी क्या आवश्यकता है? पुत्रको गयामें

पहुँचा हुआ देखकर पितरोंके यहाँ उत्सब होने

लगता है। वे कहते हैं--'क्या यह पैरोंसे भी

जलका स्पर्श करके हमारे तर्पणके लिये नहीं

देगा?! ब्रह्मज्ञान, गयामें किया हुआ श्राद्ध,

गोशालामें मरण और कुरुक्षेत्रे निवास-ये

मनुष्योंकी मुक्तिक चार साधन हैं।! नरकके

भयसे डरे हुए पितर पुत्रकी अभिलाषा रखते हैं।

वे सोचते हैं, जो पुत्र गयामें जायगा, वह हमारा

उद्धार कर देगा॥ १--६ ३ ॥

साधारण विधि है। गयातीर्थमें काल आदिका

कोई नियम नहीं है। वहाँ प्रतिदिन पिण्डदान देना

चाहिये। जो वहाँ तीन पक्ष (डेढ़ मास) निवास

करता है, वह सात पीढ़ीतकके पितरोंको पवित्र

कर देता है। अष्टकाः तिथियोंमें, आभ्युदयिक

कार्योंमें तथा पिता आदिकी क्षयाह-तिथिको भी

यहाँ गयामें माताके लिये पृथक्‌ श्राद्ध करनेका

विधान है। अन्य तीर्थोपिं स्त्रीका श्राद्ध उसके

पतिके साथ ही होता है। गयामें पिता आदिके

क्रमसे “नव देवताक' अथवा “द्वादशदेवताक'

श्राद्ध करना आवश्यक है'॥ ७ --९६३॥

पहले दिन उत्तर-पानस-तीर्थमे स्नान करे।

परम पवित्र उत्तर-मानस-तीर्थमे किया हुआ स्नान

आयु और आरोग्यकी वृद्धि, सम्पूर्ण पापराशियोंका

विनाश तथा मोक्षकी सिद्धि करनेवाला है; अतः

वहाँ अवश्य स्नान करे। ्नानके बाद पहले देवता

और पितर आदिका तर्पण करके श्राद्धकर्ता पुरुष

पितरोंको पिण्डदान दे। तर्पणके समय यह

भावना करे कि "मैं स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूमिपर

रहनेवाले सम्पूर्ण देवताओंको तृप्त करता हूँ।'

स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूमिके देवता आदि एवं

१. ब्र्मजानं गयाक्षाद्ध गोगृहे परणं तथा॥ वासः पुमां कुरुक्षेत्रे मुक्तिरियां ऋतुर्विधां। (अगति घु० ११५।५-६)

२. मार्गशीर्ष मासको पूर्णिमाके बाद जो चार कृष्णपक्षको अष्टमी तिथिय आती हैं, उन्हें अष्टका" कहते है । उनके चार पृथक्‌-

पृथक्‌ नाम ह - पौष कृष्ण अष्टमौको “ऐन्द्री', माघ कृष्ण अष्टमौक्ो 'वैश्वीदेयी', फाल्युन कृष्ण अष्टमीको 'प्राजापत्या' और चैत्र कृष्ण

अषटमीको 'पिह्या' कहते हैं।

उक्त चार अश्टकाओँका क्रमश: इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति तथा पितृ-देवतासे सम्बन्ध है। अषटकाके दूसरे दिन जो नवमी आती है,

उसे " अन्वष्टका" कहते हैं। 'अष्टका संस्कार'-कर्म है; अत: एक हौ यार किया जाता है, प्रतिवर्ष वही । उस दितर मातृपूजा और

आभ्युदयिक श्राद्धके पश्चात्‌ गृह्याग्निमें होम किया जाता है।

३. पिता. पितामह, प्रपितामह, साता, फ्लमहौं, प्रफितासही, मातामह, प्रमातामह तथा युद्ध प्रमातामह-ये नौ देवता हैं। इनके

लिये किया जानेवाला श्राद्ध ' क्वदेवताक " या कवदैवत्य ' कहलाता है । इसमें मातामही आदिका भाग मातामह आदिके साथ ही सम्मिलित

रहता है । जहां मातामहों, प्रमातामही और युद्ध ग्रमाठामहोंको भी पृथक्‌ पिण्ड दिया जाय, वहाँ बारह देवता होनेसे वह परादशदेकताक'

ब्राद्ध है।

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