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अग्निकुण्ड हैं। उनके बीचमें गङ्गा सब तीर्थोको

साथ लिये बड़े वेगसे बहती हैं। वहाँ त्रिभुवन-

विख्यात सूर्यकन्या यमुना भी हैं। गङ्गा और

यमुनाका मध्यभाग पृथ्वीका * जघन' माना गया है

और प्रयागको ऋषिर्योने जघनके बीचका “उपस्थ

भाग' बताया है ॥ १--४॥

प्रतिष्ठान (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और

अश्वतर नाग तथा भोगवती तीर्थ--ये ब्रह्माजीके

यज्ञकौ वेदी कहे गये हैं। प्रयागे वेद ओर यज्ञ

मूर्तिमान्‌ होकर रहते है । उस तीर्थके स्तवन और

नाम-कीर्तनसे तथा वर्की मिट्टीका स्पर्श करनेमात्रसे

भी मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । प्रयागमें

गङ्गा ओर यमुनाके संगमपर किये हुए दान, श्राद्ध

और जप आदि अक्षय होते है ॥ ५-७॥

ब्रह्मन्‌! वेद अथवा लोक --किसीके कहनेसे

भी अन्ते प्रयागतीर्थके भीतर मरनेका विचार

नहीं छोड़ना चाहिये । प्रयागमें साठ करोड़, दस

द्द्द्न्म

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हजार तीर्थोका निवास दै; अतः वह सबसे श्रेष्ठ

है। वासुकि नागका स्थान, भोगवती तीर्थ

और हंसप्रपतन --ये उत्तम तीर्थ हैं। कोरि गोदानसे

जो फल मिलता है, वही इनमें तीन दिनोंतक

स्नान करनेमात्रसे प्राप्त हो जाता है। प्रयागमें

माघमासमें मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं कि “गङ्गा

सर्वत्र सुलभ हैं; किंतु गङ्गावार, प्रयाग और

गङ्गा-सागर-संगम--इन तीन स्थानम उनका

मिलना बहुत कठिन है।' प्रयागे दान देनेसे

मनुष्य स्वर्गे जाता है ओर इस लोके आनेपर

राजाओंका भी राजा होता है॥ ८--१२॥

अक्षयवरके मूलके समीप और संगम आदिमे

मृत्युको प्राप्त हुआ मनुष्य भगवान्‌ विष्णुके धाममें

जाता है। प्रयागे परम रमणीय उर्वशी -पुलिन,

संध्यावट, कोरितीर्थ, दशाश्वमेध घाट, गङ्गा

यमुनाका उत्तम संगम, रजोहीन मानसतीर्थ तथा

वासरक तीर्थं- ये सभी परम उत्तम हैं॥ १३-१४॥

इस प्रकार आदि आस्तेय महापुराणमें “प्रयाग -माहात्म्य- वर्णन नासक

एक सो ग्यारहवाँ अध्याय पय हुजा॥ १११॥

एक सौ बारहवाँ अध्याय

वाराणसीका माहात्म्य

अग्निदेव कहते हैं-- वाराणसी परम उत्तम

तीर्थं है । जो वहाँ श्रीहरिका नाम लेते हुए निवास

करते है, उन सबको वह भोग और मोक्ष प्रदान

करता है । महादेवजीने पार्वतीसे उसका माहात्म्य

इस प्रकार बतलाया है ॥ १॥

महादेवजी बोले-- गौरि! इस क्षेत्रको मैंने

कभी मुक्तं नहों किया-सदा ही वहाँ निवास

किया है, इसलिये यह "अविमुक्त" कहलाता है ।

अविमुक्त-क्षेत्रमें किया हुआ जप, तप, होम और

दान अक्षय होता है। पत्थरसे दोनों पैर तोड़कर बैठ

रहे, परंतु काशो कभी न छोड़े। हरिन, आग्रातकेश्वर,

जप्येश्वर, श्रीपर्वत, महालय, भृगु, चण्डेश्वर और

केदारतीर्थ -ये आठ अविमुक्त-क्षेत्रमें परम गोपनीय

तीर्थ हैं। मेरा अविमुक्त-क्षेत्र सब गोपनीयोंमें भी

परम गोपनीय है। वह दो योजन लंबा और आधा

योजन चौड़ा है । ' वरणा" और ' नासी ' (असी)-

इन दो नदिर्योके बीचमें ' वाराणसीपुरौ ' है । इसमें

स्नान, जप, होम, मृत्यु, देवपूजन, श्राद्ध, दान

और निवास -जो कुछ होता है, वह सव भोग

एवं मोक्ष प्रदान करता है ॥ २--७॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुण्ये 'वाराणसी-माहात्म्यवर्णत ” नामक

एक सौ बारहवा अध्याव पूरा हुआ॥ ११२॥

[क मी

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