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है और क्षेत्रसे वेध होनेपर धनकी हानि होती | तो शत्रुता और छायासे वेध हो तो निर्धनता प्राप्त

है॥ ३०-३१॥

होती है। इन सबका छेदन अथवा उत्पाटन हो

प्रासाद, गृह एवं शाला आदिके मार्गोंसे | जानेसे वेध-दोष नहीं लगता है। इनके बीचमें

दवारोके विद्ध होनेपर बन्धन प्राप्त होता है, सभासे | चहारदीवारी उठा दी जाय तो भी वेध-दोष

वेध प्राप्त होनेपर दरिद्रता होती है तथा वर्णसे वेध | दूर हो जाता है। अथवा सीमासे दुगुनी भूमि

हो तो निराकरण (तिरस्कार) प्राप्त होता है। | छोडकर ये वस्तुं हों तो भी वेध-दोष नहीं होता

उलूखलसे वेध हो तो दारिद्रथ, शिलासे वेध हो | है॥ ३२--३४॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें “सामान्य-प्रासादलकषण- वर्णन ” नामक

एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १०४४

एक सौ पाँचवाँ अध्याय

नगर, गृह आदिकी वास्तु-प्रतिष्ठा-विधि

भगवान्‌ शंकर कहते है -- स्कन्द! नगर, | अर्क (आदित्य या सूर्य), सत्य, भृश और व्योम

ग्राम तथा दुर्ग आदिमे गृहो और प्रासादोंकी वृद्धि

हो, इसकी सिद्धिके लिये इक्यासी पदोंका

वास्तुमण्डल बनाकर उसमें वास्तु-देवताकी पूजा

अवश्य करनी चाहिये। (दस रेखा पश्चिमे

पूर्वकी ओर ओर दस दक्षिणसे उत्तकी ओर

खींचनेपर इक्यासी पद तैयार होते हैं।) पूर्वाभिमुखी

दस रेखाएं दस नाडियोंकी प्रतीकभूता है । उन

नाडियोंके नाम इस प्रकार बताये गये हैँ-- शान्ता,

यशोवती, कान्ता, विशाला, प्राणवाहिनी, सती,

वसुमती, नन्दा, सुभद्रा ओर मनोरमा । उत्तराभिमुख

प्रवाहित होनेवाली दस नाडियाँ और हैं, जो उक्त

नौ पदको इक्यासी पदमे विभाजित करती हैं;

उनके नाम ये हैं--हरिणी, सुप्रभा, लक्ष्मी, विभूति,

विमला, प्रिया, जया, (विजया, ) ज्वाला और विशोका ।

सूत्रपातं करनेसे ये रेखामयी नाडियां अभिव्यक्त

होकर चिन्तनका विषय बनती है । १-४॥

ईश आदि आठ-आठ देवता “अष्टक' हैं,

जिनका चारों दिशाओंमें पूजन करना चाहिये।

पूर्वादि चार दिशाओकि पृथक्‌-पृथक्‌ अष्टक है ।)

ईश, घन (पर्जन्य), जय ( जयन्त), शक्र (इन्द्र),

(आकाश) -इन आठ देवताओंका बास्तुमण्डलमें

पूर्व दिशाके पदमे पूजन करना चाहिये । हव्यवाह

(अग्नि), पूषा, वितथ, सौम (सोमपुत्र गृहक्षत),

कृतान्त (यम), गन्धर्व, भृज्ञ (भृज़राज) और

मृग--इन आठ देवताओंकी दक्षिण दिशाके पदोंमें

अर्चना करनी चाहिये। पितर, द्वारपाल (या

दौवारिक), सुग्रीव, पुष्पदन्त, वरुण, दैत्य (असुर),

शेष (या शोष) और यक्ष्मा (पापयक्ष्मा) -इन

आठोंका सदा पश्चिम दिशाके पदोंमें पूजन

करनेकी विधि है। रोग, अहि (नाग), मुख्य,

भाललार, सोम, शैल (ऋषि), अदिति और दिति-

इन आठॉकी उत्तर दिशके पदॉमें पूजा

होनी चाहिये। वास्तुमण्डलके मध्यवर्ती नौ पदोंमें

ब्रह्माजी पूजित होते हैं और शेष अड्तालीस

पदोंमेंसे आधेमें* अर्थात्‌ चौबीस पदोंमें वे देवता

पूजनीय हैं, जो अकेले छः पदोंपर अधिकार

रखते हैं। [ ब्रह्माजीके चारों ओर एक-एक करके

चार देवता षट्पदगामी हैं-जैसे पूर्वमे मरीचि

(या अर्यमा), दक्षिणमें विवस्वान्‌, पश्चिमे मित्र

देवता तथा उत्तरे पृथ्वीधर ।] ॥ ५--८॥

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