करावे। फिर नाभिपर्यन्त दीर्घाओंके साथ शीशेका
आवरण देकर, एकाग्रचित्त हो, नीचेके गर्तको
बालूसे पार दे और कहे--' भगवन्! आप सुस्थिर
हो जाये '॥ २५--३० ॥
तदनन्तर लिङ्गके स्थिर हो जानेपर सकल
(सावयव) रूपवाले परमेश्वरका ध्यान करके,
शवत्यन्त- मूल-मन्कका उच्चारण करते हुए, िवलिङ्गके
स्पर्शपूर्वक उसमें निष्कलीकरण-न्यास करे । जब
शिवलिङ्गकी स्थापना हो रही हो, उस समय
जिस-जिस दिशाका आश्रय ले, उस-उस दिशाके
दिक्पाल-सम्बन्धी मन्त्रका उच्चारण करके पूर्णाहुति-
पर्यन्त होम करे और दक्षिणा दे। यदि शिवलिङ्गसे
शब्द प्रकट हो अथवा उसका मुख्यभाग हिते या
फट-फूट जाय तो मूल-मन्त्रसे या "बहुरूप"
मन्त्रद्वारा सौ आहुतियाँ दे । इसी प्रकार अन्य दोष
प्राप्त होनेपर शिवशास्त्रोक्त शान्ति करे। उक्त
विधिसे यदि शिवलिंग्मे न्यासका विधान किया
जाय तो कर्ता दोषका भागी नहीं होता। तदनन्तर
लक्षणस्पर्शरूप पीटबन्ध करके गौरीमन्त्रसे
उसका लय करे। फिर पिण्डीमें सुष्टिन्यास
करे ॥ ३१--३५॥
लिङ्गके पार्श्रभागमें जो संधि (छिद्र) हो,
उसको बालू एवं वज्रलेपसे भर दे । तत्पश्चात् गुरु
मूर्तिपालकोकि साथ शान्तिकलशके आधे जलसे
शिवलिङ्गको नहलाकर, अन्य कलशो तथा पञ्चामृत
आदिसे भी अभिषिक्त करे । फिर चन्दन आदिका
लेप लगा, जगदीश्वर शिवकी पुजा करके, उमा-
महेश्वर-मन्त्रोंद्वारा लिड्डमुद्रासे उन दोनोंका स्पर्श
करे। इसके बाद छहों अध्वाओंके न्यासपूर्वक
त्रितत्तवन्यास करके, मूर्तिन्यास, दिक्पालन्यास,
अङ्गन्यास एवं ब्रह्मन्यासपूर्वक ज्ञानाशक्तिका लिड्रमें
तथा क्रियाशक्तिका पीठमें न्यास करनेके पश्चात्
सान करावे ॥ ३६--३९ ॥
गन्धका लेपन करके धूप दे और
व्यापकरूपसे शिवका न्यास करे । हृदय-मन्त्रद्वारा
पुष्पमाला, धूप, दीप, नैवेद्य ओर फल निवेदन
करे । यथाशक्ति इन वस्तुओंको निवेदित करनेके
पश्चात् महादेवजीको आचमन करावे । फिर विशेषार््य
देकर मन्त्र जपे ओर भगवान्के वरदायक हाथमें
उस जपको अर्पित करनेके पश्चात् इस प्रकार
कहे-'हे नाथ! जबतक चन्द्रमा, सूर्य और
तारोंकी स्थिति रहे, तबतक मूर्तीशों तथा
मूर्तिपालकोंके साथ आप स्वेच्छापूर्वक ही इस
मन्दिरमे सदा स्थित रहें।! ऐसा कहकर प्रणाम
करनेके पश्चात् बाहर जाय और हृदय या प्रणब-
मन्त्रसे वृषभ (नन्दिकेश्वर)-की स्थापना करके,
फिर पूर्ववत् बलि निवेदन करे। तत्पश्चात्
न्यूनता आदि दोषके निराकरणके लिये मृत्युञ्जय-
मन्त्रसे सौ बार समिधार्ओंकी आहुति दे एवं
शान्तिके लिये खीरसे होम करे ॥ ४०--४४॥
इसके बाद यों प्रार्थना करे--' महाविभो ! ज्ञान
अथवा अज्ञानपूर्वक कर्ममें जो त्रुटि रह गयी है,
उसे आप पूर्ण करें! यों कहकर यथाशक्ति
सुबर्ण, पशु एवं भूमि आदि सम्पत्ति तथा गीत-
वाद्य आदि उत्सव, सर्वकारणभूत अम्बिकानाथ
शिवको भक्तिपूर्वक समर्पित करें। तदनन्तर चार
दिनोंतक लगातार दान एवं महान् उत्सव करे।
मन्त्रज्ञ आचार्यको चाहिये कि उत्सवके इन चार
दिनोंमेंसे तीन दिनोंतक तीनों समय मूर्तिपालकोंके
साथ होम करे और चौथे दिन पूर्णाहुति देकर,
बहुरूप-सम्बन्धी मन्त्रसे चरु निवेदित करे। सभी
कुण्डोमें सम्पाताहुतिसे शोधित चरु अर्पित करना
चाहिये। उक्त चार दिनोंतक निर्माल्य न हटावे।
चौथे दिनके बाद निर्माल्य हटाकर, खान करानेके
पश्चात् पूजन करे। सामान्य लिड्रोंमें साधारण
मन्तरद्वारा पूजा करनी चाहिये । लिङ्गं - चैतन्यको