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और उन्हें पृष्ठदेशमें ले जाकर जोड़ दे। रत्नमय

लिङ्गे लक्षणोद्धारकी आवश्यकता नहीं है।

भूमिसे स्वतः प्रकट हुए अथवा नर्मदादि नदियोंसे

प्रादर्भूत हुए शिवलिङ्गे भी लक्ष्मोद्धार अपेक्षित

नहीं है। रत्रमय लिङ्गोकि रत्नोंमें जो निर्मल प्रभा

होती है, वही उनके स्वरूपका लक्षण ( परिचायक)

है । मुखभागमें जो नेत्रोन्मीलन किया जाता है, वह

आवश्यक है और उसीके संनिधानके लिये बह

लक्ष्म या चिह बनाया जाता है। लक्षणोद्धारकी

रेखाका घृत और मधुसे मृत्युझ्षय-मन्त्रद्वारा पूजन

करके, शिल्पिदोषकी निवत्तिके लिये मृत्तिका

आदिसे खान कराकर, लिड्रकी अर्चना करे।

फिर दान-मान आदिसे शिल्पीको संतुष्ट करके

आचार्यको गोदान दे।

तदनन्तर सौभाग्यवती स्वियौ धूप, दीप आदिके

द्वारा लिङ्गकी विशेष पूजा करके मङ्गल-गीत

गाये ओर सव्य या अपसव्य भावसे सूत्र अथवा

कुशके द्वारा स्पर्शपूर्वक रोचना अर्पित करके

न्योछावर दँ । इसके बाद यजपान गुड़, नमक

और धनिया देकर उन स््रर्योको विदा

करे ॥ ६०--६६॥

तत्पश्चात्‌ गुरु मूर्तिरक्षक ब्राह्मणोंक साथ “नम: '

या प्रणव-मनत्रके द्वारा मिट्टी, गोबर, गोमूत्र और

भस्मसे पृथक्‌-पृथक्‌ लान करावे! एक-एकके

बाद बीच जलसे स्नान कराता जाय। फिर

पञ्चगव्य, पञ्चामृत, रूखापन दूर करनेवाले कषाय

द्रव्य, सर्वौषधिमिश्रित जल, श्वेत पुष्प, फल,

सुवर्ण, रत्न, सींग एबं जौ मिलाये हुए जल,

सहस्रधारा, दिव्यौषधियुक्त जल, तीर्थ-जल,

गड्जाजल, चन्दनमिश्रित जल, क्षीरसागर आदिके

जल, कलशोंके जल तथा शिवकलशके जलसे

अभिषेक करे। रूखेपनको दूर करनेवाला विलेपन

लगाकर उत्तम गन्थ और चन्दन आदिसे पजन

करनेके पश्चात्‌ ब्रह्ममन्त्रद्वारा पुष्प तथा कवच

मन्त्रसे लाल वस्त्र चढ़ावे। फिर अनेक प्रकारसे

आरती उतारकर रक्षा और तिलकपूर्वक गीत-

वाद्य आदिसे, विविध द्रव्योंसे तथा जय-जयंकार

और स्तुति आदिसे भगवान्‌कों संतुष्ट करके

पुरुष-मन्त्रसे उनकी पूजा करे। तदनन्तर हृदय-

मन्त्रसे आचमन करके इष्टदेवसे कहे - प्रभो!

उठिये'॥ ६७--७३॥

फिर इष्टदेवको ब्रह्मरथपर बिठाकर उसीके

द्वारा उन्हें सब ओर घुमाते और द्रव्य बिखेरते हुए

मण्डपके पश्चिम द्वारपर ले जाय और वहाँ

शय्यापर भगवान्‌को पधरावे। आसनके आदि-

अन्तर्मे शक्तिकी भावना करके उस शुभ आसनपर

उन्हें विराजमान करे। पश्चिमाधिमुख प्रासादमें

पश्चिम दिशाकी ओर पिण्डिका स्थापित करके

उसके ऊपर ब्रह्मशिला रखे। शिवकोणमें सौ

अस्त्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित निद्रा-कलश और

शिवासनकी कल्पना करके, हृदय-मन्त्रसे अर्घ्य

दे, देवताको उठाकर लिङ्गमय आसनपर

शिरोमन्त्रद्वारा पूर्वी ओर मस्तक रखते हए

आरोपित एवं स्थापित करे। इस प्रकार उन

परमात्माका साक्षात्कार होनेपर चन्दन और धूप

चढ़ाते हुए उनको पूजा करे तथा कवच-

मन्त्रसे वस्त्र अर्पित करे। घरका उपकरण आदि

अर्पित कर दे। फिर अपनी शक्तिके अनुसार

नमस्कारपूर्वक नैवेद्य निवेदन करें। अभ्यङ्ग

कर्मके लिये घृत और मधुसे युक्त पात्र इष्टदेवके

चरणोंके समीप रखे। वहाँ उपस्थित हुए

आचार्य शक्तिसे लेकर भूमि-पर्यन्त छत्तीस तत्त्वोंके

समूहको उनके अधिपतियोंसहित स्थापित करके

'फूलकी मालाओंसे उनके तीन भागोंकी कल्पना

करें॥ ७४--८०॥

वे तीन भाग मायासे लेकर शक्ति-पर्यन्त हैं।

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