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* अग्निपुराण *

तिरानबेवाँ अध्याय

वास्तुपूजा-विधि

भगवान्‌ शिव कहते है - स्कन्द ! तदनन्तर

प्रासादको आसूत्रित करके बास्तुमण्डलकौ रचना

करे। समतल चौकोर क्षेत्रे चौसठ कोष्ठ बनावे ।

कोनोंमें दो वंशोंका विन्यास करे । विकोणगामिनी

आठ रज्जुएँ अद्भत करे। वे द्विपद ओौर षट्पद

स्थानोके रूपमे विभक्त होगी । उनमें वास्तुदेवताका

पूजन करे, जिसकी विधि इस प्रकार है- कुञ्चित

केशधारी वास्तुपुरुष उत्तान सो रहा है । उसकी

आकृति असुरके समान रहै ।' पूजाकाले उसके

इसी स्वरूपका स्मरण करना चाहिये, परंतु दीवार

आदिकी नीव रखते समय उसका ध्यान यों

करना चाहिये कि 'बह ऑऔँधेमुँह पड़ा हुआ है।

कोहनीसे सटे हुए उसके दो घुटने वायव्य और

अग्निकोणमें स्थित हैं। अर्थात्‌ दाहिना घुटना

वायव्यकोणमें और बायाँ घुटना अग्रिकोणमें

स्थित है। उसके जुड़े हुए दोनों चरण पैतृ (चैत्य)

दिशामें स्थित हैं तथा उसका सिर ईशानकोणकी

ओर है। उसके हाथोंकी अञ्जलि वक्षःस्थलपर

है'॥ १--४॥

उस वास्तुपुरुषके शरीरपर आरूढ हुए

देबताओंकी पूजा करनेसे वे शुभकारक होते हैं।

आठ देवता कोणाधिपति माने गये हैं, जो आठ

कोणाधोँमें स्थित हैं। क्रमशः पूर्व आदि दिशाओंमें

स्थित मरीचि आदि देवता छः-छः पदोंके स्वामी

कहे गये हैं और उनके बीचमें विराजमान ब्रह्मा

चार पदोंके स्वामी हैं। शेष देवता एक-एक पदके

अधिष्ठाता बताये गये हैँ । समस्त नाडी- सम्पात,

महामर्प, कमल, फल, त्रिशूल, स्वस्तिक, वज्र,

महास्वस्तिक, सम्पुट, त्रिकरि, मणिबन्ध तथा

सुविशुद्ध पद--ये बारह मर्म-स्थान हैं। वास्तुकौ

भित्ति आदिमें इन सबका पूजन करे। ईशान

(रद्र)-को घृत और अक्षत चढ़ावे। पर्जन्यको

कमल और जल अर्पित करे। जयन्तको कुड्कुमरज्जित

निर्मल पताका दे। महेन्द्रकों रत्रमिश्रित जल,

सूर्यको धूम्र वर्णका चदोवा, सत्यको घृतयुक्तं गेहूँ

तथा भृशको उड्द-भात चढ़ावे। अन्तरिक्षको

विमांस (विशिष्ट फलका गृदा या औषधविशेष )

अथवा सक्तु (सतू) निवेदित करे। ये पूर्व दिशाके

आठ देवता हैं ॥५--१० ३ ॥

अग्निदेवको मधु, दूध और घीसे भरा हुआ

सुक्‌ अर्पित करे। पूषाकों लाजा और वितथको

सुवर्ण-मिश्रित जल दे। गृहक्षतको शहद तथा

यमराजको पलोदन भेंट करे। गन्धर्वनाथको गन्ध,

भृङ्गराजको पश्षिजिद्धा तथा मृगको यवपर्ण ( जौके

पत्ते) चढ़ावे-बे आठ देवता दक्षिण दिशामें

पूजिते होते हैं। 'पितृ' देवताकों तिल-मिश्रित

जल अर्पित करे। 'दौवारिक' नामवाले देवताको

वृक्ष-जनित दूध और दन्तधावन धेनुमुद्राके

प्रदर्शनपूर्वक निवेदित करे। "सुग्रीव" को पूआ

चढ़ावे, पुष्यदन्तको कुशा अर्पित करे, बरुणको

लाल कमल भेंट करे और असुरको सुरा एवं

आसव चद्धावे। शोषको घीसे ओतप्रोत भात तथा

(पाप यक्ष्मा) रोगको घृतमिश्रित माँड या

लावा चढ़ावे। ये पश्चिम दिशाके आठ देवता कहे

गये है ॥ ११--१६॥

मारुतको पीले रंगका ध्वज, नागदेवताको

नागकेसर, मुख्यको भक्ष्यपदार्थं तथा भ्लाटको

छौंक-बघारकर मूँगकी दाल अर्पित करे। सोमको

घृतमिश्रित खीर, चरकको शालूक, अदितिको

लोपी तथा दितिको पूरी चढ़ावे। ये उत्तर दिशाके

आठ देवता कहे गये। मध्यवर्ती ब्रह्माजोको

मोदक चढ़ावे। पूर्व दिशामें छः पदोंके उपभोक्ता

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