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ज्योतिर्मय परात्पर परब्रह्म हैं। ज्ञानयोग तथा

कर्मयोगद्वारा उन्हींका पूजन होता है। एक दिन

उन विष्णुस्वरूप अग्निदेवसे मुनियोंसहित मैंने

इस प्रकार प्रश्न किया॥ ८--११॥

वसिष्ठजीने पूछा- अग्निदेव! संसारसागरसे

पार लगानेके लिये नौकारूप परमेश्वर ...ब्रह्मके

स्वरूपका वर्णन कीजिये और सम्पूर्ण विद्याओंके

सारभूत उस विद्याका उपदेश दीजिये, जिसे

जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥ १२॥

अग्निदेव बोले- वसिष्ट! मैं ही विष्णु हूँ, मैं

ही कालाग्निरुद्र कहलाता हूँ। मैं तुम्हें सम्पूर्ण

विद्याओंकी सारभूता विद्याका उपदेश देता हूँ,

जिसे अग्निपुराण कहते हैं। वही सब विद्याओंका

सार है, वह ब्रह्मस्वरूप है। सर्वमय एवं सर्वकारणभूत

ब्रह्म उससे भिन्न नहीं है। उसमें सर्ग, प्रतिसर्ग,

वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित आदिका तथा मत्स्य-

कूर्म आदि रूप धारण करनेवाले भगवानूका

वर्णन है। ब्रह्मन्‌! भगवान्‌ विष्णुकी स्वरूपभूता

दो विद्याएँ हैं--एक परा और दूसरी अपरा। ऋक्‌,

यजुः, साम और अथर्वनामक वेद, वेदके छहों

अङ्ग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्यौतिष

और छन्दःशास्त्र तथा मीमांसा, धर्मशास्त्र, पुराण,

न्याय, वैद्यक (आयुर्वेद), गान्धर्व वेद (संगीत),

धनुर्वेद ओर अर्थशास्त्र -यह सब अपरा विद्या है

तथा परा विद्या वह है, जिससे उस अदृश्य,

अग्राह्य, गोत्ररहिते, चरणरहित, नित्य, अविनाशी

ब्रह्मका बोध हो। इस अग्निपुराणको परा विद्या

समझो। पूर्वकालमें भगवान्‌ विष्णुने मुझसे तथा

ब्रह्माजीने देवताओंसे जिस प्रकार वर्णन किया

था, उसी प्रकार मैं भी तुमसे मत्स्य आदि अवतार

धारण करनेवाले जगत्कारणभूत परमेश्वस्का प्रतिपादन

करूँगा॥ १३--१९॥

इस प्रकार व्यास्वारा सूतके ग्रति कटे गये आदि आग्रेय महाएुराणमें पहला अध्याय पूरा हुआ॥ १५

[7

दूसरा अध्याय

मत्स्यावतारकी

कथा

वसिष्ठजीने कहा-- अग्निदेव ! आप सृष्टि | वे कृतमाला नदीमें जलसे पितरोंका तर्पण कर रहे

आदिके कारणभूत भगवान्‌ विष्णुके मत्स्य आदि | थे, उनकी अञ्जलिके जलमें एक बहुत छोटा-सा

अवतारोंका वर्णन कीजिये । साथ ही ब्रह्मस्वरूप

अग्निपुराणको भी सुनाइये, जिसे पूर्वकालमें

आपने श्रीविष्णुभगवानके मुखसे सुना था॥ १॥

अग्निदेव बोले-- वसिष्ठ ! सुनो, मैं श्रीहरिके

मत्स्यावतारका वर्णन करता हं । अवतार-धारणका

कार्य दुष्टोंके विनाश और साधु-पुरु्षोकी रक्षाके

लिये होता है। बीते हुए कल्पके अन्ते 'ब्राह्म! नामक

नैमित्तिक प्रलय हुआ था। मुने! उस समय भू"

आदि लोक समुद्रके जलमें डूब गये थे । प्रलयके

पहलेकी बात है । वैवस्वत मनु भोग और मोक्षकी

सिद्धिके लिये तपस्या कर रहे थे। एक दिन जब

मत्स्य आ गया। राजाने उसे जलमें फेंक देनेका

विचार किया। तब मत्स्यने कहा -' महाराज! मुझे

जलमें न फेंको। यहाँ ग्राह आदि जल-जन्तुओंसे

मुझे भय है।' यह सुनकर मनुने उसे अपने

कलशके जलमें डाल दिया। मत्स्य उसमें पड़ते

ही बड़ा हो गया और पुनः मनुसे बोला-

"राजन्‌! मुझे इससे बड़ा स्थान दो।' उसकी यह

बात सुनकर राजाने उसे एक बड़े जलपात्र (नाद

या कूँडा आदि)-में डाल दिया। उसमें भी बड़ा

होकर मत्स्य राजासे बोला-'मनो! मुझे कोई

विस्तृत स्थान दो ।' तब उन्होंने पुनः उसे सरोवरके

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