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+ अध्याय ९२१

जाय तो वहाँकी भूमिको उत्तम समझे। अथवा

जल आदिसे उसकी परीक्षा करे।* हड्डी और

कोयले आदिसे दूषित भूमिका खोदने, वहाँ

गौओंको ठहराने अथवा बारंबार जोतने आदिके

द्वारा अच्छी तरह शोधन करे। नगर, ग्राम, दुर्ग,

गृह और प्रासादका निर्माण करानेके लिये उक्त

प्रकारसे भूमि-शोधन आवश्यक है। मण्डपमें

द्वारपूजासे लेकर मन्त्रतर्पण-पर्यन्त सम्पूर्ण कर्मका

सम्पादन करके विधिपूर्वक घोरास्त्र सहस्रयाग

करे । बराबर करके लिपी-पुती भूमिपर दिशाओंका

साधन करे। सुवर्ण, अक्षत और दहीके द्वारा

प्रदक्षिणक्रमसे रेखाएँ खींचे। मध्यभागसे ईशानकोष्ठमें

स्थित भरे हुए कलशमें शिवका पूजन करे । फिर

वास्तुकी पूजा करके उस कलशके जलसे कुदाल

आदिको सींचे। मण्डपसे बाहर राक्षसों और

ग्रहोंका पूजन करके दिशाओंमें विधिपूर्वक

बलि दे॥ ८--१३३ ॥

कलशमें पूजा करके लग्न आनेपर अग्निकोणवतीं

कोष्ठमें पहले जिसका अभिषेक किया गया था, उस

मधुलिप्त कुदालसे धरती खुदावे और मिट्टीको

नैक्रत्यकोणमें फेँके। खोदे गये गड्ढेमें कलशका जल

गिरा दे। फिर भूमिका अभिषेक करके कुदाल

आदिको नहलाकर उसका पूजन करे। तत्पश्चात्‌

दूसरे कलशको दो वस्त्रौमे आच्छादित करके

ब्राह्मणके कंधेपर रखकर गाजे-याजे और वेदध्वनिके

साथ नगरकी पूर्व सीमाके अन्ततक, जितनी दूर

जाना अभीष्ट हो, उतनी दूर ले जाय और वहाँ

क्षणभर ठहरकर वहाँसे नगरके चारों ओर

१९७

प्रदक्षिणक्रमसे चलते हुए ईशानकोणतक उस

कलशको घुमावे। साथ ही सीमान्तचिहोंका अभिषेक

करता रहे॥ १४--१८॥

इस प्रकार रुद्र-कलशको नगरके चारों ओर

घुमाकर भूमिका परिग्रह करे। इस क्रियाको

* अर्घ्यदान ' कहा गया है। तदनन्तर शल्यदोषका

निवारण करनेके लिये भूमिको इतनी गहराईतक

खुदवावे, जिससे कंकड़-पत्थर अथवा पानी

दिखायी देने लगे! अथवा यदि शल्य (हड्डी

आदि)-का ज्ञान हो जाय तो उसे विधिपूर्वक

खुदवाकर निकाल दे। यदि कोई लग्न-कालमें

प्रश्न पूछे ओर उसके मुखसे अ, क, च, ट, त,

प. स और ह-इन वर्गोंके अक्षर निकलें तो

इनकी दिशाओं शल्यकी स्थिति सूचित होती

है। अथवा द्विज आदि वहाँ गिर तो ये सब उस

स्थानम शल्य होनेकी सूचना देते हैँ । कर्तकि

अपने अङ्ग-विकारसे उसके ही बराबर शल्य

होनेका निश्चय करे! पशु आदिके प्रवेशसे,

कीर्तनसे तथा पक्षियोकि कलरवोंसे शल्यको

दिशाका ज्ञान प्राप्त करे ॥ १९--२२॥

किसी पटरीपर या भूमिपर अकारादि आठ

वर्गे युक्त मातृका-वर्णोको लिखे । वर्गके अनुसार

क्रमशः पूर्वसे लेकर ईशानतककी दिशाओं

शल्यकी जानकारी प्राप्त करे। "अ" वमिं पूर्व

दिशाकौ ओर लोहा होनेका अनुमान करे। 'क'

वर्गमें अग्निकोणकी ओर कोयला जाने। *च'

बर्गमें दक्षिण दिशाकी ओर भस्म तथा ट ' वर्गे

जैऋत्यकोणकी ओर अस्थिका होना समझे। " त

* * समनरङ्गणसूत्रधार "के अनुसार जलमे परोश्य करनेकी विधि इस प्रकार है- गा खोदकर उसकी मिट्टी निकालकर मिट्टौसे

ही पूरित करजेके बजाय पानी भरना चाहिये । पानी भरकर सौ कदम (पदशतं व्रजेत्‌) चलना चाहिये। पुत्र: लौट आनेपर वदि

पानी जितना था उतना ही रहे तो ओह, कुछ कम (६) हो आय तो मध्यम और बहुत कम (६) अधवा ओर अधिक कम हो

जाय तो वर्ज्य-निकृश समझना चाहिये। समशज्ञणकी इस प्रक्रियामें मत्स्यपुराण-प्रक्रियाकी छाप है। परंतु मयमुनिने इस प्रक्रियाके

सम्बन्धमें और भी कटोरता दिखायी है। उनके अनुसार गड्ढेंमें सायंकाल पानी भरा जाय और दूसरे दिव्र प्रातः उसको परीक्षा करनी

चाहिये। यदि उसमें प्रात: भी कुछ पानीके दर्शन हो जाये तो उसे अत्पुत्कृष्ट भूमि समझना चाहिये। इसके विपरीत गुणवाली भूमि

अनिष्टदायिनी तथा वर्ज्य है।

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