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श्री” इन बीजोंसे युक्त हैं। सूर्यके मन्त्र "आं क्षौं' | ' क' तकके अक्षरोंको अन्तमें रखनेसे सम्पूर्ण
इन बीजोंसे, शिवके मन्त्र 'आं हौँ' इन बीजोंसे, | मन्त्र बनते हैं॥ १४--१६ ॥
गणेशके मन्त्र 'आं गं' इन बीजोंसे तथा श्रीहरिके
१४४० सम्पूर्ण मण्डल होनेसे सूर्य, शिव, देवी
मन्त्र 'आं अं" इन बीजोंसे युक्त हैं। कादि व्यज्जन | दुर्गा तथा विष्णुमेंसे प्रत्येकके तीन सौ साठ
अक्षरों तथा अकारादि सोलह स्वरोको मिलाकर | मण्डल होते है । अभिषिक्त गुरु इन सब मन्त्रौ
इक्यावन होते हैं। इस प्रकार सस्वर कादि | तथा देवताओंका जप-ध्यान करे तथा शिष्य एवं
अक्षरोको आदिमे और सस्वर 'क्ष' से लेकर | पुत्रको दीक्षा भी दे॥ १७॥
इस प्रकार आदि आए्नेव महापुराणे “ जाता मन्त्र आदिका कथते नामक
इक्यातवेवां अध्याय पूरा हुआ॥ ९१॥
बानबेवाँ अध्याय
प्रतिष्ठाके अड्रभूत शिलान्यासकी विधिका वर्णन
भगवान् शिव कहते हैं--स्कन्द! अब मैं
संक्षेपसे और क्रमश: प्रतिष्ठाका वर्णन करूँगा।
पीठ शक्ति है और लिङ्ग शिव। इन दोनों (पीठ
ओर लिङ्ग अथवा शक्ति ओर शिव)-के योगमें
शिव-सम्बन्धी मन्त्रोदवारा प्रतिष्ठकी विधि सम्पादित
होती है । प्रतिष्ठाके "प्रतिष्ठा ' आदि पाँच भेद' है ।
उनका स्वरूप तुम्हें बता रहा हूं । जहाँ ब्रह्मशिलाका
योग हो, वहाँ विशेषरूपसे की हुई स्थापना
“प्रतिष्ठा ' ' कही गयी है । पीठपर ही यथायोग्य जो
अर्चा-विग्रहको पधराया जाता है, उसे ' स्थापन'
कहते है । प्रतिष्ठा ( ब्रह्मशिला)-से भिन्नकी स्थापनाको
“स्थिर स्थापन ' कहते हैं। लिङ्गके आधारपूर्वक जो
स्थापना होती है, उसे 'उत्थापन' कहा गया है।
जिस प्रतिष्ठामें लिज्रकों आरोपित करके विद्वानोंद्वारा
उसका संस्कार किया जाता है, उसकी ' आस्थापन '
संज्ञा है। ये शिव-प्रतिष्ठाके पाँच भेद हैं। 'आस्थान'
१, प्रतिर, स्थापन्, स्थिर स्थापन, उत्थापनं और आस्थापत।
और “उत्थान ' भेदसे विष्णु आदिकी प्रतिष्ठा दो
प्रकारकी मानी गयी है। इन सभी प्रतिष्ठाओंमें
चैतन्यस्वरूप परमशिवका नियोजन करे । ' पदाध्वा '
आदि भेदसे प्रासादोमे भी पाँच प्रकारकी प्रतिष्ठा
बतायौ गयी हैर । प्रासादकी इच्छासे पृथ्वीकी
परीक्षा करे। जहाँकी मिट्टीका रंग श्वेत हो और
घीकी सुगन्ध आती हो, वह भूमि ब्राह्मणके लिये
उत्तम बतायी गयी है। इसी तरह क्रमशः क्षत्रियके
लिये लाल तथा रक्तकी-सी गन्धवाली मिट्टी,
वैश्यके लिये पीली और सुगन्धयुक्त मिट्टीवाली
तथा शूद्रके लिये काली एवं सुराकी-सी गन्धवाली
मिट्टीसे युक्त भूमि श्रेष्ठ कही गयी है॥ १--७॥
पूर्व, ईशान, उत्तर अथवा सब ओर नीची
और मध्यमें ऊँची भूमि प्रशस्त मानी गयी है?।
एक हाथ गहराईतक खोदकर निकाली हुई मिट्टी
यदि फिर उस गड्ढेमें डाली जानेपर अधिक हो
२, 'अध्वा' छ: कहे गये हैं--तत्त्वाध्या, पदाध्वा, वर्णाध्वा, मन्त्राध्वा, कलाध्वा ओर् भुवनाध्वा । इनमेंसे प्रथमको छोड़कर शेष
पाँचोंके भेदसे यहाँ पाँच प्रकारकी प्रतिष्ठाका निर्देश किया गया है।
३. “समराज्भणसूत्रधार' में भी इससे मिलती-जुलती बात कहो गयी है--
अनूषरा यहुतुणा स्ख खित्धोत्तरफतवा। प्रागीशानप्लका सर्वप्लबा का टर्पणोंदरा॥ ( आवो अ०, भूमि-परीक्षा ६-७)