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कोटि सहसत वर्षम जो पाप उपार्जित, किया गया

है, वह सब देवताओंको घीका अभ्यङ्ग लगानेसे

भस्म हो जाता है। एक आढक घी आदिसे देवताओंको

नहलाकर मनुष्य देता हो ` जाता है ॥ १--३॥

चन्दनका अनुलेप लगाकर गन्ध आदिसे

देवपूजन करे तो उसका भी वही फल है । थोड़ेसे

आयासके द्वारा स्तुति पढ़कर यदि सदा देवताओंकी

स्तुति कौ जाय तो वे भूत और भविष्यका

ज्ञान, मन्त्रज्ञान, भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले

होते हैं॥४३॥

यदि कोई मन्त्रके शुभाशुभ फलके विषयमें

प्रश्न करे तो प्रश्नकतकि संक्षिप्त प्रश्रवाक्यके

अक्षरोंकी संख्या गिन ले। उस संख्यामें दोसे भाग

दे। एक बचे तो शुभ और शून्य या दो बचे तो

अशुभ फल जाने। तीनसे भाग देनेपर मूल

धातुरूप जीवका परिचय मिलता है, अर्थात्‌ एक

शेष रहे तो वातजीव, दो शेष रहे तो पित्तजीव

और तीन शेष रहे तो कफजीव जाने। चारसे भाग

देनेपर ब्राह्मणादि बर्ण-बुद्धि होती है। तात्पर्य यह

कि एक बाकी बचे तो उस मन्त्रे ब्राह्मण-बुद्धि,

दो बचनेपर क्षत्रिय-बुद्धि, तीन बचनेपर वैश्य-

बुद्धि और चार शेष रहनेपर शुद्र-बुद्धि करे।

पाँचसे भाग देनेपर शेषके अनुसार भूततत्त्व

आदिका बोध होता है, अर्थात्‌ एक आदि शेष

रहनेपर पृथिवी आदि तत्त्वका परिचय मिलता है।

इसी प्रकार जय-पराजय आदिका ज्ञान प्राप्त

करे॥ ५-६॥

यदि मन्त्र-पदके अन्तर्मे एक त्रिक (तीन

बीजाक्षर) हों, अधिक बीजाक्षर हों अथवा दो

प, म एवं क हो तो इनमेंसे प्रथम वर्गं अशुभ,

बीचवाला मध्यम तथा अन्तिम वर्ग शुभ है । यदि

अन्ते संख्या-समृह हो तो वह जीवनकालके

दस वर्षका सूचक है । यदि दसकी संख्या हो तो

दस वर्षके पश्चात्‌ उस मन्त्रके साधकपर यमराजका

निश्चय ही आक्रमण हो सकता है ॥७‡॥

सूर्य, गणपति, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी तथा

श्रीविष्णु भगवान्‌के मन्त्रके अक्षरोंद्वारा जपमें

तत्पर कठिनी ( अंगुली) -से स्पर्श किये

गये कमलपत्र गोमूत्राकार रेखापर एक त्रिकसे

आरम्भ कर बारह त्रिक-पर्यन्त लिखे। अर्थात्‌

उक्त मन्त्रोके तीन-तीन अक्षरोका समुदाय एकसे

लेकर बारह स्थानोंतक पृथक्‌-पृथक्‌ लिखे । इसी

प्रकार चौसठ कोष्ठोंका एक मण्डल बनाकर

उसमें मरुत्‌ (चं), व्योम (हं) ओर मरत्‌

(ये ) -इन तीन बीजोंका त्रिक पहले कोष्ठे लेकर

आठवें कोष्ठतक लिखे। इन सब स्थानोपर पासा

फेंकनेसे अथवा स्पर्श करनेपरं शुभाशुभका परिज्ञान

होता है। विषम संख्यायाले स्थानोंपर पासा पड़े

या स्पर्श हो तो शुभ और सम संख्यापर पड़े तो

अशुभ फल होता है ॥ ८--१०॥

"यं हं यं इन तीन बीजोंके आठ त्रिक है ।

वे ध्वज आदि आठ आयोके प्रतीक हैं। इन

आयोंमें जो सम है, वे अशुभ हैं। विषम आय

शुभप्रद कहे गये हैं॥ ११॥

“क”' आदि अक्षरोको सोलह स्वरोंसे तथा

सोलह स्वरोंको “क' आदिसे युक्त करके उन

सबके साथ' आं ई" यह पल्लव लगा दे। पह्लवयुक्त

इन सस्वर कादि अक्षरोंकों आदिमें रखकर

उनके साथ त्रिपुराके नाम-मन्त्रको पृथक्‌-पृथक्‌

सम्बद्ध करे। उनके आदिमे "ॐ ही" जोड़े

और अन्तमं “नमः” पद लगा दे। इस प्रकार

पूजनकर्मके उपयोगमें आनेवाले इन मन्त्रोंका

प्रस्तार बीस हजार एक सौ साठकी संख्यातक

पहुँच जाता है ॥ १२-१३॥

"आं हीं - इन बीजोंसे युक्त सरस्वती, चण्डी,

गौरी तथा दुगकि मन्त्र हैं। श्रीदेवीके मन्त्र *आं

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