२. श्रीकण्ठ, ३. त्रिमूर्ति, ४. एकरूद्र, ५. एकनेत्र, | अच्छी तरह जाँच-परखकर किसीको दीक्षा,
६. शिवोत्तम, ७. सूक्ष्म और ८. अनन्तरुद्र॥ १--४॥
मध्यवर्ती कलशमें शिव, समुद्र तथा शिव-
मन्त्रकी स्थापना करे। यागमण्डपकी दिशाके
स्वापीके लिये रचित स्नान-पण्डपयें दो हाथ
लंबी और आठ अङ्गुल ऊँची एक बेदी बनावे।
उसपर कमल आदिका आसन बिछा दे। और
उसके ऊपर आसनस्वरूप अनन्तका न्यास करके
शिष्यको पूर्वाभिमुख बिठाकर सकलीकरणपूर्वक
पूजन करें। काञ्जी, भात, मिट्टी, भस्म, दूर्वा,
गोबरके गोले, सरसों, दही ओर जल--इन सबके
द्वारा उसके शरीरको मलकर क्षारोदक आदिके
क्रमसे नपस्कारसहित विदयेश्वरोके नाम-मन्त्रोंद्वारा
पूर्वोक्त कलशोके जलसे शिष्यको स्नान करावे
ओर शिष्य मन-ही-मन यह धारणा करे कि
“मुझे अमृतसे नहलाया जा रहा है ' ॥ ५--८ \ ॥
तत्पश्चात् उसे दो श्वेत वस्त्र पहनाकर शिवके
दक्षिण भागमें बिठावे और पूर्वोक्त आसनपर पुनः
उस शिष्य गी पहलेकी ही भाँति पूजा करे । इसके
बाद उसे पगड़ी, मुकुट, योग- पटिका, कर्तरी
(कैंची, चाकू या कटार), खडिया, अक्षमाला
और पुस्तक आदि अर्पित करे। वाहनके लिये
शिविका आदि भी दे। तदनन्तर गुरु उस शिष्यको
अधिकार सौपे। ' आज से तुम भलीभाँति जानकर,
व्याख्या और प्रतिष्ठा आदिका उपदेश करना'-
यह आज्ञा सुनावे। तदनन्तर शिष्यका अभिवादन
स्वीकार कर और महेश्वरको प्रणाम करके उनसे
विघ्न-समृहका निवारण करनेके लिये इस प्रकार
प्रार्थना करे-' प्रभो शिव । आप गुरुस्वरूप हैं;
आपने इस शिष्यका अभिषेक करनेके लिये
मुझे आदेश दिया था, उसके अनुसार मैंने
इसका अभिषेक कर दिया । यह संहितामें पारंगत
है'॥९--१३३॥
मन्त्रचक्रकी तृप्तिक लिये पाँच-पाँच आहुतियाँ
दे। फिर पूर्णाहुति-होम करे। इसके बाद शिष्यको
अपने दाहिने बिठावे। शिष्यके दाहिने हाथकी
अङ्गुष्ठ आदि अँगुलियोंको क्रमशः दग्ध दर्ङ्ग-
शम्बरोंसे “ऊषरत्व' के लिये लाज्छित करे।
उसके हाथमे फूल देकर उससे कलश, अग्नि एवं
शिवको प्रणाम करवावे। तदनन्तर उसके लिये
कर्तव्यका आदेश दे" तुम्हे शास्त्रके अनुसार
भलीभाँति परीक्षा करके शिष्योंकों अनुगृहीत
करना चाहिये ।' मानव आदिका राजाकी भाँति
अभिषेक करनेसे अभीष्टकी प्राप्ति होती है । * ॐ
श्लीं पशु हूं फट्।'- यह अस्त्ररज पाशुपत-मन्त्र
है । इसके द्वारा अस्त्रराजका पूजन और अभिषेक
करना चाहिये *॥ १४--१८ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेव महाएुराणमें “अभिषेक आदिकी विधिका वर्णन” नामक
नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ९०॥
थ
इक्यानबेवाँ अध्याय
देवार्चनकी महिमा तथा विविध मन्त्र एवं मण्डलका कथन
भगवान् शंकर कहते है -- स्कन्द ! अभिषेक | आदि वाद्योंकी ध्वनिके साथ देवता्ओंको पञ्चगव्यसे
हो जानेपर दीक्षित पुरुष शिव, विष्णु तथा सूर्य | स्नान कराता है, वह अपने कुलका उद्धार करके
आदि देवताओंका पूजन करे। जो शङ्खं, भेरी । स्वयं भी देवलोकको जाता है। अग्निनन्दन !
~ कमन्य अपने गर्तं यहां साधकाभिषेक तथा अस्त्रभिषेकका पो विधान दिया है। ( देखिये कर्मकाण्ड कायस स्लोक-
सं० १०८७ से १११३ तक)