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पृथक्‌-पृथक्‌ मूल-मन्त्रसे एक सौ पाँच-पाँच

आहुतियाँ दे तथा चूडाकर्म आदिके लिये इनकी

अपेक्षा दशमांश आहुतियाँ प्रदान करे। इस प्रकार

जिसका बन्धन शिथिल हो गया है, उस जीवात्माके

भीतर जो शक्तिका उत्कर्ष होता है, बही उसके

रुद्रपुत्र होनेमे निमित्त बनकर “गर्भाधान' कहलाता

है। स्वतन्त्रतापूर्वक उसमें जो अभिव्यक्ति

होती है, उसीको यहाँ “पुंसवन' माना गया है।

माया और आत्मा-दोनों एक-दूसरेसे पृथक हैं,

इस प्रकार जो बिवेक-ज्ञान उत्पल होता है,

उसीका नाम यहाँ 'सीमन्तोन्‍्नयन' है॥ ९--१३॥

शिव आदि. शुद्ध सद्वस्तुको स्वीकार करना

“जन्म ' माना गया है। मुझमें शिवत्व है अथवा मैं

शिव हूँ, इस प्रकार जो बोध होता है, वही

शिवत्वके योग्य शिष्यका “नामकरण' है। संहार-

मुद्रासे प्रकाशमान अग्निकणके समान प्रतीत होनेवाले

जीवात्माको लेकर अपने हृदयकमलमें स्थापित

करे। तदनन्तर कुम्भक प्राणायामके योगपूर्वक

मूल-मन्त्रका उच्चारण करते हुए उस समय

हृदयके भीतर शक्ति और शिवकी समरसताका

सम्पादन करे॥ १४--१६॥

ब्रह्मा आदि कारणोंका क्रमशः त्याग करते

हुए रेचक-योगसे जीवात्माकों शिवके समीप ले

जाकर फिर उद्धवमुद्राके द्वारा उसे वापस ले ले

और पूर्वोक्त हत्सम्पुटित आत्ममन्त्रद्वारा रेचक

प्राणायाम करते हुए विधानवेत्ता गुरु शिष्यके

हदय-कमलकी कर्णिकामें उस जीवात्माको स्थापित

कर दे। इसके बाद गुरु शिव और अग्निकी

तत्कालोचित पूजा करे और शिष्यसे अपने लिये

प्रणाम करवाकर उसे समयाचारका उपदेश दे।

वह उपदेश इस प्रकार है--'इष्टदेवता (शिव)-

की कभी निन्दा न करे; शिव-सम्बन्धी शास्त्रोंकी

भी- निन्दासे दूर रहे; शिव-निर्माल्य आदिको

कभी न लाँबे। जीवन-पर्यन्त शिव, अग्नि तथा

गुरुदेवकी पूजा करता रहे। बालक, मूढ़, वृद्ध,

स्त्री, भोगार्थी (भूखे) तथा रोगी मनुष्योंको

यथाशक्ति धन आदि आवश्यक वस्तुं दे ।' समर्थ

पुरुषके लिये सब कुछ दान करनेका नियम

बताया गया है॥ १७--२५१॥

ब्रतके अङ्गभूत जटा, भस्म, दण्ड, कौपीन

एवं `संयमपोषक अन्य वस्तुओंको ईशान आदि

नामोंसे अथवा उनके आदिमे नमः" लगाकर उन

नाम-मन्त्रोंसे क्रमशः अभिमन्त्रित करके स्वाहान्त

संहिता-मन्त्रोंका पाठ करते हुए उन्हें पात्रोंमें

रखे और पूर्ववत्‌ सम्पाताभिहत (संस्कारविशेषसे

संस्कृत) करके स्थण्डिलेश (वेदीपर स्थापित-

पूजित भगवान्‌ शिव )-के समक्ष उपस्थित करे ।

इनकी रक्षके लिये क्षणभर कलशके

नीचे रखे । इसके बाद गुरु शिवसे आज्ञा लेकर

उक्त सभी वस्तुं व्रतधारी शिष्यको अर्पित

करे॥ २२-२४॥

इस प्रकार विशेषरूपसे विशिष्ट समय-दीक्षा-

सम्पन्न हो जानेपर शिष्य अग्निहोम तथा आगमज्ञानके

योग्य हो जाता है*॥ २५॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'समय-दीक्षाके अन्तर्गत संस्कार-दौक्षाकी विधिका वर्णन“ तामका

बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८२॥

2

* सोमशम्भुके ग्रन्थे यहाँ निम्नाद्रित पंक्तियाँ अधिक हैं --

नाडीसंधानहोमस्तु

चैतन्यस्यापि

“ताडीसंधान-होम, मन्त्रतपण, शिष्यका पूर्ष-जातिसे उद्धार, उसमें नूतनरूपसे द्विजत्वका सम्पादन, चैतन्पसंस्कार, स्दरसिका

आपादन तथा पविष्रक-दानपूर्वक सौ बार या सहल बार होम--इन क्रियाओंको

'करनेवालो है।'

सापयौ -दीश्ना ' कहा गया है। यह सुप्रेश-पद प्रदात

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