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चाहिये और यदि भोगरूपी प्रयोजनकी सिद्धि

अभीष्ट हो तो इसके विपरीत क्रमसे शिष्यके

अद्जोंपर दृष्टिपात करना उचित है, अर्थात्‌ उस

दशामें शिखासे लेकर पैरोंतकके अज्जोंका क्रमशः

निरीक्षण करना चाहिये।* उस समय गुरुकी

दृष्टिमें शिष्यके प्रति कृपाप्रसाद भरा हो और बह

दृष्टि शिष्यके समक्ष शिवके ज्योतिर्मय स्वरूपको

अनावृतरूपसे अभिव्यक्त कर रही हो। इसके बाद

अस्त्र-मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलसे शिष्यका प्रोक्षण

करके मन्त्राम्बु-स्नानका कार्य सम्पन करे ( प्रोक्षण-

मन््रसे ही यह स्नान सम्पन्न हो जाता है)।

तदनन्तर विध्नोंकी शान्ति और पापोंके नाशके

लिये भस्म-स्नान करावे। इसकी विधि यों है--

अस्त्र-मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित भस्म लेकर उसके

द्वारा शिष्यको सृष्टि-संहार-योगसे ताडित करे

(अर्थात्‌ ऊपरसे नीचे तथा नीचेसे ऊपरतक

अनुलोम-विलोम-क्रमसे उसके ऊपर भस्म

छिड़के) ॥७६--८० ॥

फिर सकलीकरणके लिये पूर्ववत्‌ अस्त्र-

जलसे शिष्यका प्रोक्षण करके उसकी नाभिसे

ऊपरके भागमें अस्त्र-मन््रका उच्चारण करते हुए

कुशाग्रसे मार्जन करे ओर हदय -मन््रका उच्चारण

करके पापोंके नाशके लिये पूर्वोक्त कुशेकि

मूलभागसे नाभिके नीचेके अङ्गका स्पर्श करे।

साथ ही समस्त पाशोको दो टूक करनेके लिये

पुनः अस्त्र-मन्त्रसे उन्हीं कुशोंद्वारा यथोक्तरूपसे

मार्जन एवं स्पर्श करे तत्पश्चात्‌ शिष्यके शरीरमें

आसनसहित साङ्ग-शिवका न्यास करे। न्यासके

पश्चात्‌ शिवकी भावनासे ही पुष्प आदि द्वारा

उसका पूजन करे । इसके बाद नेत्र-मन्त्र वौषट्‌ )

अथवा हदय-मन्त्र (नमः )-से शिष्यके दोनों

नेत्रोंमें श्वेत, कोरदार एवं अभिमन्त्रित वस्त्रसे

पट्टी बाँध दे और प्रदक्षिणक्रमसे उसको

शिवके दक्षिण पार्धमे ले जाय। वहाँ षडुत्थ

(छहों अध्वाओंसि ऊपर उठा हुआ अथवा उन

छहोंसे उत्पन्न) आसन देकर यथोचित रीतिसे

शिष्यको उसपर बिठावे ॥ ८१--८४ \ ॥

संहारमुदराद्वारा शिवमूर्तिसे एकीभूत अपने-

आपको उसके हृदय-कमलमें अवरुद्ध करके

उसका काय-शोधन करे । तत्पश्चात्‌ न्यास करके

उसकी पूजा करे । पूर्वाभिमुख शिष्यके मस्तकपर

मूल-मन्त्रसे शिवहस्त रखना चाहिये, जो रुद्र एवं

ईशका पद प्रदान करनेवाला है। इसके बाद

शिव-मन्त्रसे शिष्यके हाथमें शिवकी सेवाकी प्राप्तिके

उपायस्वरूप पुष्प दे और उसे शिवपर ही

चढ़वावे। तदनन्तर गुरु उसके नेत्रोंमें बैधे हुए वस्त्रको

हटाकर उसके लिये शिवदेवगणाङ्कित स्थान, मन्त्र,

नाम आदिकौ उद्धावना करे, अथवा अपनी

इच्छासे ही ब्राह्मण आदि वणेकि क्रमशः नामकरण

करे॥ ८५--८८ ३ ॥

शिव-कलश तथा वार्धानीकों प्रणाम करवाकर

अग्निके समीप अपने दाहिने आसनपर पूर्ववत्‌

उत्तराभिमुख शिष्यको बिठावे और यह भावना

करे कि *शिष्यके शरीरसे सुषुम्णा निकलकर मेरे

शरीरमें विलीन हो गयी है ।' स्कन्द्‌! इसके बाद

मूलमन्त्रसे अभिमन्त्रित दर्भ लेकर उसके अग्रभागको

तो शिष्यके दाहिने हाथमें रखे और मूलभागको

अपनी जंघापर। अथवा अग्रभागको ही अपनी

जंघापर रखे और मूलभागको शिष्यके दाहिने

हाथ्पे ॥ ८९--९१६॥

शिव-मन्त्रद्वारा रेचक प्राणायामको क्रिया

करते हुए शिष्यके हृदये प्रवेशक भावना करके

पुनः उसी मन्त्रसे पूरक प्राणायामद्वारा अपने

हदयाकाश्मे लौट आनेकौ भावना करे। फिर

शिवाग्निसे इसी तरह नाड़ी- संधान करके उसके

संनिधानके लिये इदय-मन्त्रसे तीन आहुतियाँ दे ।

* सोमशम्भुकी ' कर्मकाण्ह-क्रमावली' स्लोक ७०४ में दृष्टिपातका क्रम इसके विपरीत है । यहाँ ' मुक्तौ भुक्तौ विलोमतः ' के स्थानमें

*भुकल्ै मुक्‍त्थ विलोमतः ' पाठ है।

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