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हाथमे लिये साधक यज्ञकुंण्डके पास जाय। वहाँ | श्रूँ ष्रूँ खँ | अग्निकी सात जिह्वाओकि नाम
बैठकर मन्त्र-देवताकी तृप्तिके लिये बायें भागमें
अर्घ्य, गन्ध और घृत आदिको तथा दाहिने भागमें
समिधा, कुशा एवं तिल आदिको रखकर कुण्ड,
अग्नि, सुक् तथा घृत आदिका पूर्ववत् संस्कार
करके, हदये ऊर्ध्वमुख अग्निकी प्रधानताका
चिन्तन करे तथा अग्निमें भगवान् शिवका पुजन
करे। फिर गुरु अपने शरीरम, शिवकलशपें,
मण्डले, अग्नि और शिष्यकी देहमें सृष्टिन््यासकी
रीतिसे न्यासकर्मका सम्पादन करके अध्वाका
विधिपूर्वक शोधन करनेके पश्चात् कुण्डकी लंबाई-
चौडाईकि अनुसार हो अग्निदेवके मुखकी लंबाई-
चौडाईका चिन्तन करके अग्निजिद्वाओकि नाम-
मन्त्रके अन्ते “नमः ` (एवं “स्वाहा ') बोलकर
अभीष्ट वस्तुकी आहुतियाँ देते हुए अग्निदेवको
तृप्त करे। अग्निकौ सात जिदह्वाओंके सात
बीज हैं। होमके लिये उनका परिचय दिया
जाता है ॥ ४१--४५॥
रेफरहित अन्तिम दो वर्णोकि सभी (अर्थात्
सात) अक्षर यदि रकार और छठे स्वर (ऊ)-
इस प्रकार हैं-हिरण्या, कनका, रक्ता, कृष्णा
सुप्रभा, अतिरक्ता तथा बहुरूपा । ईशान, पूर्व, अग्नि,
नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य तथा मध्य दिशामें क्रमशः
इनके मुख है । (अर्थात् एक त्रिभुजके ऊपर दूसरा
त्रिभुज अनानेसे जो छः कोण बनते हैं, वे क्रमशः
ईशान, पुर्व, अग्नि, ैर््रह्य, पश्चिम तथा वायव्यकोणमें
स्थित होते है। अग्निकी हिरण्या आदि छः
जिड़्ाओंको इन्हीं छः कोणोंमें स्थापित करे तथा
अन्तिम जिह्ना " बहुरूपा को मध्यरमे)२ ॥ ४६-४७॥
शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मे खीर आदि मधुर
पदार्थोद्रारा होम करे। परंतु अभिचार कर्मं
सरसोंकी खली, सत्तू, जौकी काजी, नमक, राई,
मट्ठा, कड़वा तेल, कटि तथा टेढ़ी-मेढ़ी
समिधाओंद्वारा क्रोधपूर्वक भाष्याणु (भाष्यमन्त्र)-
से हवन करे। कदम्बकी कलिकाओंद्वारा होम
करनेसे निश्चय ही यक्षिणी सिद्ध हो जाती है।
वशीकरण और आकर्षणकी सिद्धिके लिये बन्धूक
(दुषहरिया) और पलाशके फूलोँका हवन करना
चाहिये । राज्यलाधके लिये निल्वफलका और
पर आरू हों और उनके भी ऊपर चन्द्रबिन्दुरूप | लक्ष्मीकी प्राध्तिके लिये पाटल (पाडर) एवं
शिखा हो तो वे ही अग्निकौ सात जिद्भाओंके | चम्पाके फूलोंका होम करे । चक्रवर्ती सम्राटका
क्रमशः सात बीज-मन्त्र हैं। (यथा-यरूँ लृ वृँ | पद पानेके लिये कमलोंका तथा सम्पत्तिके लिये
१. ये सात बोज अग्निको " हिरण्या" आदि सात जिष्ठभकि नायके आदियें लगाये जति हैं और अन्तरे नमः ' पद जोड़कर ताम-मजोंसे
हो उनको पूजा कौ जातौ है । यथा--' ॐ यै हिरण्यायै नमः । '." सूह कनकायै नमः ।' "रँ रक्तायै नम: ।',' शरं कृष्णायै नमः ।' पूरू ' प्रभायै
जमः 4 ' खूँ अतिरक्तायै वमः ।" "हं बहुरूपायै नमः ।'
२. सोमशम्भूने इन स्वरूप तथा कामनाभेदसे विभिन करमो दवे उपयोगके चिषये इस प्रकार लिखा है--
एकैव बहुरूपा तु सर्वकामफलप्रदा। (कर्मकाण्ड-क्रमावली ६६४--६६७)
३, सोमशम्भुके ग्रन्थमें इसके बाद यह एक क्लोक अधिक है--
विद्याधरत्वतलाभाव चन्दागुरुयुतं पुरम्। अण्वा पद्मकिकल्कैजुंहुयात् साधकोत्तम: ॥
*साधक- शिरोमणिको चाहिये कि वह “विद्याधर-पद” की प्रा्िके लिये कपूर, अगुरु और गुगगुलमे अथव्छा कमलके केसरोॉसे
हवन करे ।'