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संस्कारोंद्वारा उसका संस्कार करे। फिर यज्ञमण्डपमें

बिखरनेयोग्य पूर्वोक्त वस्तुओंको बिखेरकर कुशकी

कूँचीसे उन सबको बटोर ले और उन्हें ईशानकोणमें

स्थापित वार्धानी (जलपात्र)-में आसनके लिये

रख दे। नैर्ऋत्यकोणमें वास्तुदेवतार्ओंका और

पश्चिम द्वारपर लक्ष्मीका पूजन करे। साथ ही यह

भावना करे कि “बे मण्डपरूपिणी लक्ष्मी देवी

रत्नोंके भण्डारसे यज्ञमण्डपको परिपूर्ण कर रही

हैं।! इस प्रकार ध्यान एवं आवाहन कर हृदय-

मन्त्र “नम: ' के द्वारा अर्थात्‌ 'लक्ष्म्ये नमः।'- इस

मन्त्रसे उनकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद

ईशानकोणमें सप्तधान्यपर स्थापित किये हुए

वस्त्रवेष्टित पञ्चरत्नयुक्त एवं जलसे परिपूर्ण

पश्चिमाभिमुख कलशपर भगवान्‌ शंकरका पूजन

करे। फिर उस कलशके दक्षिण भागमें सिंहपर

विराजमान पश्चिमाभिमुखी शक्ति खड्गरूपिणी

वार्धानीका पूजन करे ॥ २६--३०॥

तदनन्तर पूर्व आदि दिशाओंमें इन्द्र आदि

दिक्पालोका ओर इसके अन्ते विष्णुभगवान्‌का

पूजन करे। ये सब-के-सब प्रणवमय आसनपर

विराजमान हैं तथा अपने-अपने वाहनों और

आयुधोंसे संयुक्त हैं-ऐसी भावना करके उनके

नामोके अन्तम "नमः" पद जोड़कर उन्हींसे

उनकी पूजा करे। यथा--'इन्द्राय नमः ।', ' विष्णवे

नमः ।' इत्यादि । पहले पूर्वोक्त वार्धानीको भलीभाँति

हाथमे ले, उसे कलशके सामनेकी ओरसे ले

जाकर प्रदक्षिणक्रमसे उसके चारों ओर घुमावे

और उससे जलकौ अविच्छिन्न धारा गिराता रहे ।

साथ ही मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए लोकपालोंको

भगवान्‌ शिवकी निम्नाद्भित आज्ञा सुनवे-

"लोकपालगण! आपलोग यथाशक्ति सावधानीके

साथ इस यज्ञकी रक्षा करें।' यों आदेश दे, नीचे

एक कलश रखकर उसके ऊपर उस वार्धानीको

स्थापित कर -दे। तत्पश्चात्‌ सुस्थिर आसनवाले

कलशपर भगवान्‌ शंकरका साड़ पूजन करे। इसके

बाद कला आदि षडध्वाका न्यास करके शोधन करे

और वार्धानीमें अस्त्रकी पूजा करे॥ ३१-३४॥

पूजाके मन्त्र. इस प्रकार हैं--४० हः

अस्त्रासनाय हूं फट्‌ नमः ।',' ॐ ॐ अस्त्रमूर्तये

हूं फट्‌ नमः।',' ॐ हूं फट्‌ पाशुपतास्त्राय नम: ।',

"ॐ ॐ हृदयाय हूं फट्‌ नम:।', ' ॐ श्रीं शिरसे

हूँ फट्‌ नमः।',*ॐ यं शिखायै हं फट्‌ नमः।'

"ॐ शुं कवचाय हू फट्‌ नपः।,*ॐ हूं फट

अस्त्राय हूं फट्‌ नपः।' इसके बाद पाशुपतास्त्रके

स्वरूपका इस प्रकार चिन्तन करे--'उनके चार

मुख हैं। प्रत्येक मुखे दाढ़ें हैं। उनके हार्थोमिं

शक्ति, मुद्गर, खड्ग और त्रिशूल हैं तथा उनकी

प्रभा करोड़ों सूर्योके समान है ।' इस प्रकार ध्यान

करके लिङ्गमुद्राके प्रदर्शनद्वारा भगलिङ्गका समायोग

करे। हदय-मन्त्र ( नमः )-का उच्चारण करते

८ ७५ कलशका स्पर्श करे और मुट्ठीसे

वार्धानीका। भोग और मोक्षकी

सिद्धिके लिये पहले मुट्ठीसे वार्धानीका ही स्पर्श

करना चाहिये। फिर कलशके मुखभागकौ रक्षाके

लिये उसपर पूर्वोक्तं ज्ञान-खड्ग समर्पित करे।

साथ ही मूल-मन्त्रका एक सौ आठ बार जप

करके बह जप भी कलशको निवेदन कर दे।

उसके दशमांशका जप करके वार्धानीमें उसका

अर्पण करे। तदनन्तर भगवानूसे रक्षाके लिये

प्रार्थना करें--'सम्पूर्ण यज्ञोको धारण करनेवाले

भगवान्‌ जगन्नाथ! बड़े यतसे इस यज्ञ-मन्दिरका

निर्माण किया गया है? कृपया आप इसकी रक्षा

करें! ॥ ३५--४०॥

इसके बाद वायव्यकोणर्मे प्रणवमय आसनपर

विराजमान चार भुजाधारी गणेशजीका पूजन करे ।

तत्पश्चात्‌ वेदीपर शिवका पूजन करके अर्ध्य

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