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करनेवाला साधक एवं पुरोहित वास्तु-देवताको

बलि देकर सोनेके थालमें अथवा पुरइनके पत्ते

आदिमे मौनभावसे भोजन करे। भोजनपात्रके रूपमें

उपयोग केके लिये बरगद, पीपल, मदार, ड,

साखू और भिलावेके पत्तोंको त्याग देना चाहिये -

इन्हें कामे नहीं लाना चाहिये। पहले आचमन

करके, ' प्रणवयुक्त प्राण" आदि शब्दोंके अन्तर्मे

"स्वाहा ' बोलकर अनकी पाँच आहुतियाँ देकर

जठरानलको उदूदीप्त करनेके पश्चात्‌ भोजन करना

-चाहिये। इसका क्रम यों है -नाग, कूर्म, कृकल,

देवदत्त ओर धनंजय -ये पाँच उपवायु है । "एतेभ्यो

नागादिभ्य उपवायुभ्यः स्वाहा ।' इस मन््रसे

[। अग्निपुराण [।

आचमन करके, भात आदि भोजन निवेदन करके,

अन्तर्मे फिर आचमन करे और कहे--' ॐ

अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।' इसके बाद पाँच

परारणोको एक-एक ग्रासकी आहुतियाँ अपने मुखमें

दे-(१) ॐ प्राणाय स्वाहा । (२) ॐ अपानाय

स्वाहा । (३) ॐ व्यानाय स्वाहा । (४) ॐ

समानाय स्वाहा । (५) ॐ उदानाय स्वाहा ।*

तत्पश्चात्‌ पूर्ण भोजन करके पुनः चृल्लुभर पानीसे

आचमन करे और कहे--' ॐ अमृतापिधानमसि

स्वाहा ।' यह आचमन शरीरके भीतर पहुँचे हुए

अननको आच्छादित करने या पचानेके लिये

है॥ १७--२४॥

इस प्रकार आदि आस्तेय महापुराणमें 'कप्रिला-पूजत आदिक विधिका वर्णन” नामक

सतहतरवाँ अध्याय पूरा हआ ॥ ७७॥

“~~~

अठहत्तरवाँ अध्याय

पवित्राधिवासनकी विधि

भगवान्‌ महेश्वर कहते हैँ -- स्कन्द ! अब मैं

पवित्रारोहणका वर्णन करूँगा, जो क्रिया, योग

तथा पूजा आदिमे न्यूनताकी पूर्तिं करनेवाला है ।

जो पवित्रारोहण कर्म नित्य किया जाता है, उसे

"नित्य' कहा गया है तथा दूसरा, जो विशेष

निमित्तको लेकर किया जाता है, उसे "नैमित्तिक"

कहते हैँ । आषाढ मासकी आदि-चतुर्दशीको तथा

श्रावण और भाद्रपद मासोंकी शुक्ल-कृष्ण उभय-

पक्षीय चतुर्दशी एवं अष्टमी तिथियोंमें पवित्रारोहण

या पवित्रारोपण कर्म करना चाहिये। अथवा

आषाद्‌ मासकौ पूर्णमासे लेकर कार्तिकं मासकौ

पूर्णिमातक प्रतिपदा आदि तिधिर्योको विभिन

देवताओंके लिये पवित्रारोहण करना चाहिये ।

प्रतिपदाको अग्निके लिये, द्वितीयाको ब्रह्माजौके

लिये, तृतीयाको पार्वतीके लिये, चतुरथीको गणेशके

लिये, पञ्चमीको नागराज अनन्तके लिये, षष्ठौको

स्कन्दके अर्थात्‌ तुम्हारे लिये, सप्तमीको सूर्यके

लिये, अष्टमीको शूलपाणि अर्थात्‌ मेरे लिये,

नवमीको दुगकिं लिये, दशमीकौ यमराजके लिये,

एकादशीको इन्द्रके लिये, द्वादशीको भगवान्‌

गोविन्दके लिये, त्रयोदशीको कामदेवके लिये,

चतुर्दशीको मुञ्च शिवके लिये तथा पूर्णिमाको

अमृतभोजी देवताओंके लिये पवित्रारोपण कर्म

करना चाहिये ॥ १--३२॥

सत्ययुग आदि तीन युगोंमें क्रमशः सोने,

चाँदी और ताँबेके पवित्रक अर्पित किये जाते हैं,

किंतु कलियुगमें कपासके सूत, रेशमी सूत अथवा

कमल आदिके सूतका पवित्रक अर्पित करनेका

* अग्निषुराणके मूलमे च्यान-वायुको आहुति अन्ते बतायी गयो है; परंतु गृद्मसूत्रोंमें इसका तोसरा स्थान है । इसलिये वहीं क्रम

अर्थमें रखा गया है ।

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