+ अध्याय ७५*
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लंबाईको "प्रादेश" कहते है ।) प्रादेश बराबर लंबे
दो कुशोंको अङ्गु तथा अनामिका--इन दो
अँगुलियोंसे पकड़कर उनके द्वारा अस्त्र ( फट् )-
के उच्वारणपूर्वक अग्निके सम्मुख घीको प्रवाहित
करे । इसी प्रकार हदय-मन्त्र (नमः )-का उच्चारण
करके अपने सम्मुख भी घृतका आप्लाव करे ।
"नमः ' के उच्वारणपूर्वक हाथमे लिये हुए कुशके
दग्ध हो जानेपर उसे शस्त्र-क्षेप ( फट्के उच्चारण) -
के द्वारा पवित्र करे। एक जलते हुए. कुशसे
उसकी नीराजना (आरती) करके फिर दूसरे
कुशसे उसे जलावे। उस जले हुए कुशको अस्न-
मन्तरसे पुनः अग्निमें ही डाल दे। तत्पश्चात् घृतमें
एक प्रादेश बराबर कुश छोड़े, जिसमें गाँठ
लगायी गवी हो। फिर घीमें दो पक्षों तथा इडा
आदि तीन नाड़ियॉकी भावना करे। इडा आदि
तीनों भागोंसे क्रमशः जुवद्वारा घी लेकर उसका
होम करे । ' स्वा ' का उच्चारण करके सुवावस्थित
घीको अग्निमें डाले और “हा'का उच्चारण
करके हुतशेष घीको उसे डालनेके लिये रखे हुए
पात्रविशेषमें छोड़ दे। अर्थात् 'स्वाहा' बोलकर
क्रमशः दोनों कार्य (अग्निमें हवन और शेषका
पात्रविशेषमें प्रक्षेप) करे ॥ ३२--३६॥
प्रथम इडाभागसे घी लेकर "ॐ हामग्नये
स्वाहा।' इस मन््रका उच्चारण करके घीका
अग्निमें होम करे और हुतशेषका पात्रविशेषमें
प्रक्षेप करे। इसी प्रकार दूसरे पिड्रलाभागसे घी
लेकर "ॐ हां सोमाय स्वाहा।' बोलकर पघोीमें
आहति दे और शेषका पात्रविशेषमें प्रक्षेप करे ।
फिर “ सुषुम्णा" नामक तृतीय भागसे घी लेकर
"ॐ हामम्नीषोमाभ्यां स्वाहा ।' बोलकर खुवाद्वारा
घी अग्ने डाले और शेषका पात्रविशेषे
प्रक्षेपण करे । तत्पश्चात् बालक अग्निके मुखमें
करनेके लिये घृतपूर्ण सुवद्रारा निम्नाङ्कित मन्त्र
बोलकर अग्निमे चौथी आहुति दे--' ॐ हामग्नये
स्विष्टकृते स्वाहा ' ॥ ३७--३९॥
तत्पश्चात् (पहले अध्यायमें बताये अनुसार)
(४७ हां हृदयाय नमः।' इत्यादि छहों अज्भ-
सम्बन्धी मन्त्रोंद्ाशा घीको अभिमन्त्रित करके
धेनुमुद्राद्वारा जगावे। फिर कवच-मन््र (हुम्) -से
अवगुण्ठित करके शरमन्त्र (फद्)-से उसकी
रक्षा करे। इसके बाद हृदय-मन्त्रसे घृतबिन्दुका
उत्क्षेपण करके उसका अभ्युक्षण एवं शोधन करे।
साथ ही शिवस्वरूप अग्निके पाँच मुखोकि लिये
अभिघार-होम, अनुसंधान-होम तथा मुखोके
एकौकरण-सम्बन्धी होम करे । अभिघार-होमकी
विधि यों है--' ॐ हां सद्योजाताय स्वाहा । ॐ
हां वामदेवाय स्वाहा । ॐ हां अघोराय स्वाहा ।
ॐ हां तत्पुरुषाय स्वाहा । ॐ हां ईशानाय
स्वाहा ।--हन पाँच मर्न्रोद्राय सद्योजातादि पाँच
मुखोकि लिये अलग-अलग क्रमशः घीकी
एक-एक आहुति देकर उन मुखोंको अभिघारित-
घीसे आप्लावित करे । यही मुखाभिघार- सम्बन्धी
होम है। तत्पश्चात् दो-दो मुखोकि लिये एक
साथ आहुति दे; यही मुखानुसंधान होम है।
यह होम निम्नाद्भित मन्त्रोंसे सम्पन्न करें--
"ॐ हां सद्योजातवामदेवाभ्यां स्वाहा। ॐ हां
खामदेवाघोराभ्यां स्वाहा] ॐ हां
अधोरतत्पुरुषाभ्यां स्वाहा। ॐ हां
तत्पुरुषेशानाभ्यां स्वाहा ।' ॥ ४०-- ४४ ३ ॥
तदनन्तर कुण्डमें अग्निकोणसे वायव्यकोणतक
तथा नै्रह्यकोणसे ईशानकोणतक घीकी अविच्छिन
धाराद्रारा आहुति देकर उक्त पाँचों मुखोंकी एकता
करे। यथा -' ॐ हां सद्योजातवामदेवाघोर-
तत्पुरुषेशानेभ्यः स्वाहा ।' इस मन्त्रसे पाँचों
नेत्रत्रयके स्थानविशेषे तीनों नेत्रोंका उद्घाटन | मुखोकि लिये एक ही आहुति देनेसे उन सबका