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त्वः ए | ररर

उनके नाम इस प्रकार हैँ-- वामा, ज्वेष्ठा,

रौद्री, काली, कलविकारिणी", बलविकारिणीर,

बलप्रमथिनी, सर्वभूतदमनी तथा मनोन्मनी -इन

सबका क्रमशः पूजन करना चाहिये । वामा आदि

आठ शक्तियोंका कमलके पूर्वं आदि आठ दलोंमें

तथा नवीं मनोन्मनीका कमलके केसर-भागमें

क्रमशः पूजन किया जाता है। यथा-'ॐ हां

वामायै नमः।' इत्यादि। तदनन्तर पृथ्वी आदि

अष्ट मूर्तियों एवं विशुद्ध विद्यादेहका चिन्तन एवं

पूजन करे। (यथा पूर्वि ' ॐ सूर्यमूर्तये नमः।'

अग्निकोणमें “ॐ चन््रमूर्तये नमः।' दक्षिणे

"ॐ पृथ्वीमूर्तये नमः।' नै्त्यकोणमें * ॐ

जलमूर्तये नमः।' पश्चिममें ' ॐ बद्धिमूर्तये नमः ।'

वायव्यकोणममे “ॐ वायुमूर्तये नमः ।' उत्तरे

"ॐ आकाशमूर्तये नमः।' और ईशानकोणे

"ॐ यजमानपूर्तये नम: ।' ) तत्पश्चात्‌ शुद्ध विद्याकी

और तत्त्वव्याषक्त आसनकी पूजा करनी चाहिये।

उस सिंहासनपर कर्पुर-गौर, सर्वव्यापी एवं पाँच

मुखोंसे सुशोभित भगवान्‌ महादेवको प्रतिष्ठित

करे। उनके दस भुजाएँ हैं। वे अपने मस्तकपर

अर्धचन्द्र धारण करते हैं। उनके दाहिने हाथोंमें

शक्ति, ऋष्टि, शूल, खट्टाड़ और वरद-मुद्रा हैं

तथा अपने बायें हाथोंमें वे डमरू, बिजौरा

नीबू, सर्प, अक्षसूत्र और नील कमल धारण

१. अन्य तन्त्न-ग्रन्थोंमें कलविकरिणी ' नाम मिलता है।

२. अन्यत्र बलविकरिणी ' नाम भिलता है।

करते हैर ॥ ४८--५१॥

आसनके मध्यमे विराजमान भगवान्‌ शिवकी

वह दिव्य मूर्ति बत्तीस लक्षणोंसे सम्पन्न है, ऐसा

चिन्तन करके स्वयं - प्रकाश शिवका स्मरण करते

हुए "ॐ हाँ हां हां शिवमूर्तये नमः।' कहकर उसे

नमस्कार करे । ब्रह्मा आदि कारणोकि त्यागपूर्वक

मन्त्रको शिवमें प्रतिष्ठित करे। फिर यह चिन्तन

करे कि ललाटके मध्यभागमें विराजमान तथा

तारापति चनद्रमाके समान प्रकाशमान बिन्दुरूप

परमशिव हृदयादि छः अङ्खोसे संयुक्त हो पुष्पाञ्जलिमें

उतर आये हैँ । ऐसा ध्यान करके उन्हें प्रत्यक्ष

पूजनीय मूर्तिे स्थापित कर दे। इसके बाद ' ॐ

हां हाँ शिवाय नमः ।'--यह मन्त्र बोलकर मन-

ही-मन आवाहनी" मुद्रारा मूर्तिमें भगवान्‌ शिवका

आवाहन करे । फिर स्थापनी -मुदरादरारा^ वहोँ उनकी

स्थापना और संनिधापिनी-मुद्राद्मार भगवान्‌ शिवको

समीपम विराजमान करके संनिरोधनी-मुदरादरारा"

उन्हें उस मूर्तिमे अवरुद्ध करे । तत्पश्चात्‌ “निषटुरायै

कालकल्यायै ( कालकान्त्यै अथवा काल-

कान्तायै ) फट्‌ ।' का उच्चारण करके खड्ग-

मुद्रासे भय दिखाते हुए विघ्नोंकों मार भगवे।

इसके बाद लिङ्ग -मुद्राका" प्रदर्शन करके नमस्कार

करे ॥ ५२--५६॥

इसके बाद “नमः” बोलकर अवगुण्ठन

३. न्यसेत्‌ सिंहासने देवं शुक्लं पञ्चमुखं विभुम्‌। दशबाहुं च खण्डेन्दुं दधानं दक्षिणै: कौ: ॥

शक्तयष्टिशूलखट्वाङ्गवरदं वामकैः करैः । उमरे बीजपूर च नागाश्च सूत्रकोत्यलम्‌ ॥ (अग्नि ७४।५०-५१)

४. दोनों हार्थोकौ अञ्जलि बताकर अनामिका अँगुलियोंके मूलपर्वपर अँगूठेको लगा देना - यह आवाहनको मुद्रा है।

५. यह आवाहनौ मुद्रा ही अधोमुखी ( नीचेकौ ओर मुखवालो ) कर दौ जाय तो "स्थायिनी (बिठावेवाली) मुद्रा' कहलाती है ।

६. अगूर्वोकयो ऊपर उठाकर दोनों हाथोंकी संयुक्त मुट्‌ठी बाँध लेनेपर ' संनिधापिनी (निकट सम्पर्कमें लानेवाली) मुद्रा' बत्र जाती है।

७. यदि मुट्ठीके भीतर अँगूठेकों डाल दिया जाय तो 'संगिरोधित्री (रोक रखनेवाली) मुद्रा' कहलाती है।

८. दोनों हा्थोंकी अज्ञलि बाँधकर अनामिका और कनिष्ठिका अँगुलियोंकों परस्पर सटाकर लिज्जाकार खड़ी कर ले। दोनों मध्यमाओंका

अग्रभाग बिना खड़ी किये परस्पर मिला दे। दोनों तर्जनियोकों मध्यमाओंके साथ सटाये रखे और आँगूठोंकों तर्जनियेकि मूलभागमें लगा

ले। यह अर्पांसहित शिवलिङ्गकौ मुद्रा है।

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