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महादेवजी कहते है -- स्कन्द ! अब मैं शिव-

पूजाकी विधि बताऊँगा। आचमन (एवं स्नान

आदि) करके प्रणवका जप करते हुए सूर्वदेवको

अर्ध्यं दे। फिर पूजा-मण्डपके द्वारको "फट्‌ ' इस

मन्त्रद्वार जलसे सीचकर आदिमे " हां" बीजसहित

नन्दी * आदि द्वारपालोका पूजन करे । द्वारपर

उदुम्बर वृक्षकी स्थापना या भावना करके उसके

ऊपरी भागम गणपति, सरस्वती और लक्ष्मीजीकी

पूजा करे । उस वृक्षकी दाहिनी शाखापर या द्वारके

दक्षिण भागे नन्दी ओर गङ्गाका पूजन करे तथा

वाम शाखापर या द्वारके वाम भागमें महाकाल

एवं यमुनाजीकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात्‌

अपनी दिव्य दृष्टि डालकर दिव्य विघ्नोंका

उत्सारण (निवारण) करे । उनके ऊपर या उनके

उद्देश्यसे फूल फेंके और यह भावना करे कि

*आकाशचारी सारे विघ्न दूर हो गये।' साथ ही,

दाहिने पैरकौ एदीसे तीन बार भूमिपर आघात

करे और इस क्रियाद्वारा भूतलवर्ती समस्त विष्नके

निवारणकी भावना करे। तत्पश्चात्‌ यज्ञमण्डपकी

देहलीको लाँधे। वाम शाखाका आश्रय लेकर

भीतर प्रवेश करे। दाहिने पैरसे मण्डपके भीतर

प्रविष्ट हो उदुम्बरवृक्षमें अस्त्रका न्यास करे तथा

मण्डपके मध्य भागमें पीठकी आधारभूमिमें ' ॐ

हां वास्त्वधिपतये ब्रह्मणे नमः।' इस मन्त्रसे

वास्तुदेवताकी पूजा करे ॥ १--५॥

निरीक्षण आदि शस्त्रद्वारा शुद्ध किये हुए

गडुओंको हाथमें लेकर, भावनाद्रारा भगवान्‌

शिवसे आज्ञा प्राप्त करके साधक मौन हो गङ्गा

आदि नदीके तटपर जाय। वहाँ अपने शरीरको

पवित्र करके गायत्री-मन्त्रका जप करते हुए

बस्त्रसे छाने हुए जलके द्वारा जलाशयमें उन

चौहत्तरवाँ अध्याय

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विधि

गड़ुओंको भरें, अथवा हृदय-बीज (नम:)-का

उच्चारण करके जेल भरे। तत्पश्चात्‌ पूजाके लिये

गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि सब द्रव्योंको अपने पास

एकत्र करके भूतशुद्धि आदि कर्म करे। फिर

उत्तराभिमुख हो आराध्यदेवके दाहिने भागे -

शरीरके विभिन अड्ोंमें मातृकान्यास करके,

संहार-मुद्रद्रारा अरध्यकि लिये जल लेकर

मन्त्रोच्चारणपूर्वक मस्तकसे लगावे और उसे

देवतापर अर्पित करनेके लिये अपने पास रख

ले। इसके बाद भोग्य कर्मोके उपभोगके लिये

'पाणिकच्छपिका (कूर्ममुद्रा)-का प्रदर्शन करके

ट्वादश दलोंसे युक्त हृदयकमलमें अपने आत्माका

चिन्तन करें॥ ६--१० ॥

तदनन्तर शरीरमें शून्यका चिन्तन करते हुए

पाँच भूतोंका क्रमशः शोधन करे। पैरोंके दोनों

अँगूठोंकों पहले बाहर और भीतरसे छिद्रमय

(शून्यरूप) देखे। फिर कुण्डलिनी-शक्तिको

मूलाधारसे उठाकर हृदयकमलसे संयुक्त करके

इस प्रकार चिन्तन करें--'हृदयरन्श्रमें स्थित

अग्नितुल्य तेजस्वी "हूँ ' बीजमें कुण्डलिनी-शक्ति

विराज रही है।' उस समय चिन्तन करनेवाला

साधक प्राणवायुका अवरोध (कुम्भक) करके

उसका रेचक (निःसारण) करनेके पश्चात्‌, “हुँ

फट्‌ ' के उच्चारणपूर्वक क्रमशः उत्तरोत्तर चक्रोंका

भेदन करता हुआ उस ॒कुण्डलिनीको हदय,

कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य एवं ब्रह्मरन्ध्रमें ले जाकर

स्थापित करे। इन ग्रन्थिर्योका भेदन करके

कुण्डलिनीके साथ हदयकमलसे ब्रह्मरन्भ्रमें आये

“हूं' बीजस्वरूप जीवको वहीं मस्तके ( मस्तकवरती

ब्रह्मरन्ध्रे या सहस्लारचक्रमे) स्थापित कर दे।

हदयस्थित 'हूं' बीजसे सम्पुटित हुए उस जीवमें

* नारदपुराणके अनुसार नन्दी, भृज्ी, रिटि, स्कन्द, गणेश, उमा-महेश्वर, नन्दी-यृषभ तथा महाकरल -ये शैय द्वारपाल हैं।

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