कहलाता है ॥ ३१--३५॥
इसके बाद अघमर्षण करे। दाहिने हाथके | ॐ हां पुलस्तये नमः। ॐ हां क्रतवे नमः। ॐ
दोनेमें रखे हुए बोधरूप शिवमय जलको नासिकाके | हां भरद्वाजाय नमः। ॐ हां विश्वामित्राय नमः।
समीप ले जाकर बायीं --इडा नाड़ीद्वारा साँसको
खींचकर रोके और भीतरसे काले रंगके पाप-
पुरुषको दाहिनी - पिङ्गला नाडीद्रारा बाहर
निकालकर उस जलमें स्थापित करे। फिर उस
पापयुक्तं जलको हथेलीद्रारा वज्रमयी शिलाकी
भावना करके उसपर दे मारे । इससे अघमर्षणकर्म
सम्पन होता है। तदनन्तर कुश, पुष्य, अक्षत
और जलसे युक्त अर्ध्याअलि लेकर, उसे “ॐ
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हक कंूरूक कफ रऊ कक छ छ ऋ # रह जज ज जब जब कब जब
"ॐ हां अत्रये नम:। ॐ
वसिष्ठाय नपः।
ॐ हां प्रचेतसे नम:। ॐ हां मरीचये नपः।'-
इन मन्त्रोंको पढ़ते हुए अत्रि आदि ऋषिर्योको
(ऋषितीर्थसे) एक-एक अञ्जलि जल दे । तत्पश्चात्
सनकादि मुनियोंको (दो-दो अञ्जलि) जल देते
हुए निम्नाङ्किति मन््रवाक्य पदे -' ॐ हां सनकाय
वषट् । ॐ हां सनन्दनाय वषट्। ॐ हां सनातनाय
वषट्। ॐ> हां सनत्कुमाराय वषट् । ॐ हां कपिलाय
वषट् । ॐ हां पञ्चशिखाय वषट् । ॐ हां ऋभवे
नमः शिवाय स्वाहा ।'-इस मन्त्रसे भगवान् | वषट् ।'-इन मन्त्रोंद्वारा जुड़े हाथोंकी कनिष्ठिकाओकि
शिवको समर्पित करे और यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रका
जप करे॥ ३६--३८ ॥
अब मैं तर्पणकी विधिका वर्णन करूँगा।
देवताओंके लिये देवतीर्थसे उनके नाममन्त्रके
उच्चारणपूर्वक तर्पण करे। ' ॐ हूं शिवाय स्वाहा।'
ऐसा कहकर शिवका तर्पण करे। इसी प्रकार
अन्य देवत्ताओंको भी उनके स्वाहायुक्त नाम
लेकर जलसे तृप्त करना चाहिये। ' ॐ हां हृदयाय
नमः। ॐ हीं शिरसे स्वाहा। ॐ हूं शिखायै
वषट्। ॐ हैं कवचाय हुम्। ॐ हाँ नेत्रत्रयाय
वौषट्। ॐ हः अस्त्राय फट् ।'--इन वाक्योंको
क्रमशः पढ़कर हदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र
एवं अस्त्र-विषयक न्यास करना चाहिये। आठ
देवगणोंको उनके नामके अन्तर्मे 'नमः' पद
जोड़कर तर्पणार्थं जल अर्पित करना चाहिये।
यथा--' ३» हां आदित्येभ्यो नमः | ॐ हां वसुभ्यो
नपः। ॐ हां रुद्रेभ्यो नमः। ॐ हां विश्वेभ्यो
देवेभ्यो नमः। ॐ हां मरुद्भ्यो नमः। ॐ हां
भृगुभ्यो नमः। ॐ हां अङ्गिरोभ्यो नमः।' तत्पश्चात्
जनेऊको कण्ठमें मालाकौ भाँति धारण करके
ऋषिर्योका तर्पण करे ॥३९--४१॥
मूलभागसे जलाज्जलि देनी चाहिये ॥ ४२--४४॥
"ॐ हां सर्वेभ्यो भूतेभ्यो वषट् '--इस मन्तरसे
वषट्स्वरूप भूतगर्णोका तर्पण करे। तत्पश्चात्
यज्ञोपवीतको दाहिने कंधेपर करके दुहे मुड़े हुए
कुशके मूल और अग्रभागसे तिलसहित जलकी
तीन-तीन अञ्जलिं दिव्य पितरोके लिये अर्पित
करे। "ॐ हां कव्यवाहनाय स्वधा। ॐ हां
अनलाय स्वधा। ॐ हां सोमाय स्वधा। ॐ हां
यमाय स्वधा। ॐ हां अर्यम्णे स्वधा। ॐ हां
अग्निष्वात्तेभ्यः स्वधा । ॐ हां बर्हिषदभ्यः स्वधा।
ॐ हां आज्यपेभ्यः स्वधा। ॐ हां सोमपेध्य:
स्वधा ।'-- इत्यादि मन्त्रोंका उच्चारण कर विशिष्ट
देवताओंकी भाँति दिव्य पितरोंको जलाञ्जलिसे
तृप्त करना चाहिये ॥ ४५--४६ ई ॥
"ॐ हां ईशानाय पित्रे स्वधा।' कहकर
पिताको, "ॐ हां पितामहाय स्वधा।' कहकर
पितामहको तथा “ॐ हां शान्तप्रपितामहाय
स्वधा।' कहकर प्रपितामहको भी तृप्त करे।
इसी प्रकार समस्त प्रेत-पितरोका तर्पण करे।
यथा -' ॐ हां पितृभ्यः स्वधा । ॐ हां पितामहेभ्यः
स्वधा। ॐ हां प्रपितापहेभ्यः स्वधा। ॐ हां