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॥ 3;

क अभ्निपुराण ॥

नज

हुआ। अन्तमं निराश होकर आपसे कहने लगे-- | ओटमें रखकर सूर्यकी प्रखर किरणोंके तापसे उसे

"हमलोगोँको व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है

वह जटायु, जिसने सीताके लिये रावणके द्वारा मारा

जाकर युद्धमें प्राण त्याग दिया था'॥ ८-१३ ॥

उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृधके कानोंमें

पड़ीं। बह वानररोके (प्राणत्यागकी चर्चासे उनके)

खानेकी ताकमें लगा था। किंतु जटायुकी चर्चा

सुनकर रुक गया ओर बोला--वानरो! जटायु

मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्यमण्डलकी

ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखोंकी

बचाया। अत: वह तो सकुशल बच गया; किंतु

मेरी पाँखें जल गयीं, इसलिये मैं यहीं गिर पड़ा।

आज श्रीरामचन्द्रजीकी वार्ता सुननेसे फिर मेरे

पंख निकल आये। अब मैं जानकीको देखता हूँ;

वे लङ्काम अशोक-वाटिकाके भीतर हैं। लवणसमुद्रके

द्वीपे त्रिकूट पर्वतपर लङ्का बसी हुई है। यहाँसे

वहाँतकका समुद्र सौ योजन विस्तृत है। यह

जानकर सब वानर श्रीराम और सुग्रीवके पास जायं

और उन्हें सब समाचार बता दें'॥ १४--१७॥

इस ग्रकार आदि आग्नेय महापुराणे 'रामायण-कथाके अन्तर्गत किष्किन्थाकाण्डकी कथाका वर्णन

नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥<८ ॥

>>

नवाँ अध्याय

सुन्दरकाण्डकी संक्षिप्त कथा

नारदजी कहते हैं--सम्पातिकी बात सुनकर

हनुमान्‌ और अङ्गद आदि वानरोंने समुद्रकी ओर

देखा। फिर वे कहने लगे--' कौन समुद्रको लाँघकर

समस्त वानरोंकों जीवन-दान देगा?' बानरोंको

जीवन-रक्षा और श्रीरामचन्द्रजीके कार्यकी प्रकृष्ट

सिद्धिके लिये पवनकुमार हनुमानजी सौ योजन

विस्तृत समुद्रको लाघ गये। लाँघते समय

अवलम्बन देनेके लिये समुद्रसे मैनाक पर्वत उठा।

हनुमान्‌जीने दृष्टिमात्रसे उसका सत्कार किया।

फिर [ छायाग्राहिणी ] सिंहिकाने सिर उखाया । [वह

उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी, इसलिये]

हनुमान्‌जीने उसे मार गिराया। समुद्रके पार जाकर

उन्होंने लङ्कापुरी देखी । राक्षसोकि घरोंमें खोज

की; रावणके अन्तःपुरमे तथा कुम्भ, कुम्भकर्ण,

विभीषण, इन्द्रजित्‌ तथा अन्य राक्षसोकि गृहोंमें

जा-जाकर तलाश की; मद्यपानके स्थानों आदिमे

भी चक्कर लगाया; किंतु कहीं भी सीता उनकी

दृष्टिमें नहीं पड़ीं। अब वे बड़ी चिन्तामेँ पडे ।

अन्तमें जब अशोकवाटिकाकी ओर गये तो वहाँ

शिंशपा-वृक्षके नीचे सीताजी उन्हें बैठी दिखायी

दीं। वहाँ राक्षसियाँ उनकी रखवाली कर रही

थीं। हनुमान्‌जीने शिशपा-वृक्षपर चढ़कर देखा।

रावण सीताजीसे कह रहा था--तू मेरी

स्त्री हो जा; किंतु वे स्पष्ट शब्दोंमें 'ना' कर

रही थीं। वहाँ बैठी हुई राक्षसियाँ भी यही कहती

थीं--'तू रावणकी स्त्री हो जा।' जब रावण चला

गया तो हनुमान्‌जीने इस प्रकार कहना आरम्भ

किया--'अयोध्यामें दशरथ नामवाले एक राजा

थे। उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवासके

लिये गये। वे दोनों भाई श्रेष्ठ पुरुष हैं। उनमें

श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी जनककुमारी सीता तुम्हीं

हो। रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया है।

श्रीरामचन्द्रजी इस समय वानरराज सुग्रीवके मित्र

हो गये हैं। उन्होंने तुम्हारी खोज करनेके लिये ही

मुझे भेजा है। पहचानके लिये गूढ़ संदेशके साथ

श्रीरामचन्द्रजीने अँगूटी दी है। उनकी दी हुई यह

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