* अध्याय ६६ +
१३५
जनन
धेनुमती° ' (शु० यजु० ५। १६) मन्त्रसे तिलाप्टकका
होम करके ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव--इन देवताओंके
पार्षदों, ग्रहों तथा लोकपालोके लिये पुनः आहुति
दे। पर्वत, नदी, समुद्र-इन सबके उद्देश्यसे
आहुतियोंका हवन करके, तीन महाव्याहति्योका
उच्चारण करके, लुवाके द्वारा तीन पूर्णाहुति दे।
पितामह ! “वौषट्' संयुक्त वैष्णव मन्त्रसे पञ्चगव्य
तथा चरुका प्राशन करके आचार्यको सुवर्णयुक्त
तिलपात्र, वस्त्र एवं अलंकृत गौ दक्षिणामें दे।
विद्वान् पुरुष 'भगवान् विष्णु: प्रीयताम्'-ऐसा
कहकर ब्रतका विसर्जन करे॥ ११--१५॥
मैं मासोपवास आदि ब्रतोंकी दूसरी विधि भी
कहता हूँ। पहले देवाधिदेव श्रीहरिको यज्ञसे
सन्तुष्ट करे। तिल, तण्डुल, नीवार, श्यामाक
अथवा यवके द्वारा वैष्णव चरु श्रपित करे।
उसको घृतसे संयुक्त करके उतारकर मूर्ति-मन््त्रोंसे
हवन करे। तदनन्तर मासाधिपति विष्णु आदि
देवताओकि उद्देश्यसे पुनः होम के ॥ १६--१८॥
ॐ श्रीविष्णवे स्वाहा । ॐ विष्णवे विभूषणाय
स्वाहा। ॐ विष्णवे शिपिविष्टाय स्वाहा । ॐ
नरसिंहाय स्वाहा । ॐ पुरुषोत्तमाय स्वाहा ।
- आदि मन्त्रोंसे घृतप्लुत अश्वत्थवृक्षकी बारह
समिधाओंका हवन करे। "विष्णो रराटमसि०'
(शुर यजु० ५।२१) मन्त्रके द्वारा भी बारह
आहुतियाँ दे। फिर "इदं विष्णु" (शु° यजु०
५। १५) इरावती०' (शु० यजु० ५। १६) मन्त्रसे
चरुकी बारह आहुतियाँ प्रदान करे । “तद्ठिप्रासो० '
(शु यजु० ३४। ४४) आदि मन्त्रसे घृताहुति
समर्पित करे । फिर शेष होम करके तीन पूर्णाहुति
दे। "युञ्जते" ( शु यजु० ५। १४) आदि अनुवाकका
जप करके मन्त्रके आदिमे स्वकर्तृक मन्त्रोच्वारणके
पश्चात् पीपलके पत्ते आदिके पात्रमे रखकर चरुका
प्राशन करे ॥ १९--२२ ‡॥
तदनन्तर मासाधिपतियोंके . उद्देश्यसे बारह
ब्रह्मणोंको भोजन करावे। आचार्य उनमें तेरहवाँ
होना चाहिये। उनको मधुर जलसे पूर्ण तेरह
कलश, उत्तम छत्र, पादुका, श्रेष्ठ वस्त्र, सुवर्णं तथा
माला प्रदान करे। व्रतपूर्तिके लिये सभी वस्तुएँ
तेरह-तेरह होनी चाहिये । ' गौं प्रसन हों। वे
हर्षित होकर चर ।'-एेसा कहकर पौंसला, उद्यान,
मठ तथा सेतु आदिके समीप गोपथ (गोचरभूमि)
छोड़कर दस हाथ ऊँचा युप निवेशित करे।
गृहस्थ घरमे होम तथा अन्य कार्य विधिवत्
करके, पूर्वोक्तं विधिके अनुसार गृहमे प्रवेश करे।
इन सभी कार्योमिं जनसाधारणके लिये अनिवारित
अनन-सत्र खुलवा दे। विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंको
यथाशक्ति दक्षिणा दे ॥ २३-२८॥
जो मनुष्य उद्यानका निर्माण कराता है, वह
चिरकालतक नन्दनकाननमें निवास करता है।
मठ-प्रदानसे स्वर्गलोक एवं इन्द्रलोककी प्राप्ति
होती है। प्रपादान करनेवाला वरुणलोकमें तथा
पुलका निर्माण करनेवाला देवलोकमें निवास करता
है । ईंटका सेतु बनवानेवाला भी स्वर्गको प्राप्त होता
है। गोपध-निर्माणसे गोलोककी प्राप्ति होती है।
नियमों ओर ब्रतोंका पालन करनेवाला विष्णुके
सारूप्यको अधिगत करता है । कृच्छुत्रत करनेवाला
सम्पूर्ण पापोंका नाश कर देता है। गृहदान करके
दाता प्रलयकालपर्यन्त स्वर्गे निवास करता है।
गृहस्थ -मनुष्योको शिव आदि देवताओंकी समुदाय
प्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥ २९-३२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाएुराणमें “देवता-सामान्य- प्रतिष्टा- कथनत ' नामक
छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 4६ ॥#