वहाँ सीता नहीं दिखायी दीं। उस समय वे | यह कहकर कि 'सीताको रावण हर ले गया है"
आर्तं होकर शोक और विलाप करने लगे--'हा | प्राण त्याग दिया। तब श्रीरघुनाथजीने अपने
प्रिये जानकी! तू मुझे छोड़कर कहाँ चली | हाथसे जटायुका दाह- संस्कार किया। इसके बाद
गयी ?' लक्ष्मणने श्रीरामको सान्त्वना दी। तब | इन्होंने कबन्धका वध किया। कबन्धने शापमुक्त
वे वने घूम-घृम सीताकी खोज करने लगे। | होनेपर श्रीरामचन्द्रजीसे कहा--'आप सुग्रीवसे
इसी समय इनकी जटायुसे भेंट हुई। जटायुने | मिलिये ' ॥ २०--२४॥
इस प्रकार आदि आस्नेय महापुराणमें यमायण-कथाके अन्तर्गत अरण्यकाण्डकी कथाका वर्णन “
विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हआ ॥७॥
विक
आठवा अध्याय
किष्किन्धाकाण्डकी संक्षिप्त कथा
नारदजी कहते हैं--श्रीरामचन्द्रजी पम्पा-
सरोवरपर जाकर सीताके लिये शोक करने लगे।
वहाँ वे शबरीसे मिले। फिर हनुमानूजीसे उनकी
भेंट हुई। हनुमानजी उन्हें सुग्रीवके पास ले गये
और सुग्रीवके साथ उनकी मित्रता करायी।
श्रीरामचन्द्रजीने सबके देखते-देखते ताड़के सात
वृक्षोंको एक ही बाणसे बींध डाला ओर दुन्दुभि
नामक दानवके विशाल शरीरको पैरकी ठोकरसे
दस योजन दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीवके
शत्रु वालीको, जो भाई होते हुए भी उनके साथ
चैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापुरी,
वानरोका साम्राज्य, रुमा एवं तारा-इन सबको
ऋष्यमूक पर्वतपर वानरराज सुग्रीवके अधीन कर
दिया। तदनन्तर किष्किन्धापुरीके स्वामी सुग्रीवने
कहा ~ श्रीराम! आपको सीताजीकी प्राप्ति जिस
प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।'
यह सुननेके बाद श्रीरामचन्द्रजीने माल्यवान् पर्वतके
शिखरपर वषकि चार महीने व्यतीत किये और
सुग्रीव किष्किन्धामें रहने लगे। चौमासेके बाद भी
जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्रजीकी
आज्ञासे लेक्ष्मणने किष्किन्धामें जाकर कहा--
प्रतिज्ञापर अटल रहो, नहीं तो वाली मरकर जिस
मार्गसे गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है।
अतएव वालीके पथका अनुसरण न करो ।' सुग्रीवने
कहा--' सुमित्रानन्दन ! विषयभोगमें आसक्त हो जानेके
कारण मुझे बीते हुए समयका भान न रहा।
[अतः मेरे अपराधको क्षमा कीजिये] '॥ १--७॥
ऐसा कहकर वानरराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजीके
पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले-
“भगवन्! मैंने सब वानरोको बुला लिया है । अब
आपकी इच्छाके अनुसार सीताजीकी खोज करनेके
लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं जाकर
एक महीनेतक सीताजीकी खोज करे । जो एक
महीनेके बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा।' यह
सुनकर बहुत-से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर
दिशाओकि मार्गपर चल पड़े तथा वहाँ जनककुमारी
सीताको न पाकर नियत समयके भीतर श्रीराम
और सुग्रीवके पास लौट आये। हनुमानजी
श्रीरामचनद्रजीकी दी हुई अंगूठी लेकर अन्य
वानरोंके साथ दक्षिण दिशामें जानकीजीकी खोज
कर रहे थे। वे लोग सुप्रभाकी गुफाके निकट
विन्ध्यपर्वतपर हौ एक माससे अधिक कालतक
“सुग्रीव ! तुमं श्रीरामचनद्रजीके पास चलो। अपनी | ढूँढ़ते फिरे; किंतु उन्हें सीताजीका दर्शन नहीं