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श्रे

भी मुद्रासहित स्थापना करे । यात्रा- सम्बन्धी उत्सव

तथा वार्षिक आदि उत्सवकी भी योजना करके

ओर उन उत्सर्वोका दर्शनकर श्रीहरिको अपने

संनिहित जानना चाहिये । भगवानूको नमस्कार, स्तोत्र

आदिके द्वारा उनकी स्तुति तथा उनके अष्टाक्षर

आदि मन््रका जप करते समय भी भगवानूको अपने

निकर उपस्थित जानना चाहिये ॥ २५--२९॥

तदनन्तर आचार्य मन्दिरसे निकलकर द्वारवर्ती

द्वारपल चण्ड और प्रचण्डका पूजन करे। फिर

मण्डपमें आकर गरुडकी स्थापना एवं पूजा करे।

प्रत्येक दिशामें दिकृपालों तथा अन्य देवताओंका

स्थापन-पूजन करके गुरु विष्वक्सेनकी स्थापना

तथा शङ्ख, चक्र आदिकी पूजा करे। सम्पूर्ण

पार्षदों और भूतोंको बलि अर्पित करे । आचार्यको

दक्षिणारूपसे ग्राम, वस्त्र एवं सुवर्णं आदिका

दान दे । यज्ञोपयोगी द्रव्य आदि आचार्यको अर्पित

करे। आचार्वसे आधी दक्षिणा ऋत्विजोको दे ।

इसके बाद अन्य ब्राह्मणको भी दक्षिणा दे ओर

भोजन करावे । वहाँ आनेवाले किसी भी ब्राह्मणको

रोके नहीं, सबका सत्कार करे। तदनन्तर गुरु

यजमानको फल दे॥ ३०--३४॥

भगवदूविग्रहकी स्थापना करनेवाला पुरुष अपने

साथ सम्पूर्ण कुलको भगवान्‌ विष्णुके समीप ले

जाता है। सभी देवताओंके लिये यह साधारण

विधि है; किंतु उनके मृल-मन््र पृथक्‌-पृथक्‌

होते हैं। शेष सब कार्य समान हैं॥ ३५-३६॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'वासुदेव आदि देवताओंकी स्थापनाके सामान्य विधानका वर्णन”

नामक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ६०#

इकसठवाँ अध्याय

अवभृथस्नान्‌, हारप्रतिष्ठा ओर ध्वजारोपण आदिक विधिका वर्णन

श्रीभगवान्‌ हयग्रीव कहते हैं-- ब्रह्मन्‌! अब | दोनों शाखाओंकि मूलभागमें चण्ड और प्रचण्ड

मैं अवभृथस्नानका वर्णन करता हूँ। ' विष्णोर्नु

क॑ * वीर्याणि०' इत्यादि मन्त्रसे हवन करे ।

इक्यासी पदवाले वास्तुमण्डलमें कलश स्थापित

करके उनके जलसे श्रीहरिको स्नान करावे।

स्नानके पश्चात्‌ गन्ध, पुष्प आदिसे भगवान्‌की

पूजा करे और बलि अर्पित करके गुरुका पूजन

करे। अब मैं द्वारप्रतिष्ठाका वर्णन करूँगा। गुरु

ट्वारके निम्नभागमें सुवर्णं रखे ओर आठ कलशोंके

साथ वहाँ दो गूलरकी शाखाओंको स्थापित करे।

फिर गन्ध आदि उपचारों और वैदिक आदि

मन्त्रोसे सम्यक्‌ पूजन करके कुण्डोंमें स्थापित

अग्निमें समिधा, घी और तिल आदिकी आहुति

दे। तत्पश्चात्‌ शय्या आदिका दान देकर नीचे

आधारशक्तिकी स्थापना करे ॥ १--४॥

नामक देवताओंकी स्थापना करे । उदुम्बर-शाखाओंके

ऊपरी भागे देववृन्दपूजित लक्ष्मीदेवीकी स्थापना

करके श्रीसुक्तसे उनका यथोचित पूजन करे।

तत्पश्चात्‌ ब्रह्माजीका पूजन करके आचार्य आदिको

श्रीफल (नारियल) आदिकी दक्षिणा दे। प्रतिष्ठा-

द्वारा सिद्ध द्वारपर आचार्य श्रीहरिकी स्थापना

करे। मन्दिरकौ प्रतिष्ठा 'हत्य्रतिष्ठा०' इत्यादि

मन््रसे की जाती है । उसका वर्णन सुनो । वेदीके

पहले गर्भगृहके शिरोभागमें, जहाँ शुकनासाकी

समाप्ति होती है, उस स्थानपर सोने अथवा

चाँदीके बने हुए श्वेत निर्मल कलशकी स्थापना

करे। उसमें आठ प्रकारके रत्न, ओषधि, धातु,

बीज और लोह (सुवर्ण) छोड़ दे। उस सुन्दर

कलशके कण्ठभागमें वस्त्र लपेटकर उसमें जल

= विष्णो कं वीर्याणि प्रयोचं यः पार्थिवानि विममे रजारसि। यो अस्कभायदुत्तर£ सधस्थं बिचक्रमाणलेधौर्गायों विष्णवे त्वा ४

(यजु० ५।१८)}

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