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साठवाँ अध्याय

वासुदेव आदि देवताओंके स्थापनकी साधारण विधि

श्रीभगवान्‌ हयग्रीव कहते हैं-- ब्रह्मन्‌!

पिण्डिकाकी स्थापनाके लिये विद्वान्‌ पुरुष मन्दिरके

गर्भगृहको सात भागोंमें विभक्तं करे और ब्रह्मभागमें

प्रतिमाको स्थापित करे। देव, मनुष्य और पिशाच-

भागोंमें कदापि उसकी स्थापना नहीं करनी चाहिये।

ब्रह्मन्‌! ब्रह्मभागका कुछ अंश छोड़कर तथा

देवभाग और मनुष्य-भागोंमेंसे कुछ अंश लेकर,

उस भूमिमें यतनपूर्वक पिण्डिका स्थापित करनी

चाहिये । नपुंसक शिलामें रतनन्यास करे । नृसिंह-

मन्त्रसे हवन करके उसीसे रलन्यास भौ करे । व्रीहि,

रत्न, लोह आदि धातु और चन्दन आदि

पदार्थोको पूर्वादि दिशाओं तथा मध्यमे बने हुए

नौ कुण्डो अपनी रुचिके अनुसार छोड़े।

तदनन्तर इन्द्र आदिके मन्त्रोंसे पूर्वादि दिशाओंके

गर्तको गुग्गुलसे आवृत करके, रल्नन्यासकी विधि

सम्पन्न करनेके पश्चात्‌, गुरुशलाकासहित कुश-

समूहों और “सहदेव' नामक औषधके द्वारा

प्रतिमाकों अच्छी तरह मले और झाड़-पोंछ करे।

बाहर-भीतरसे संस्कार (सफाई) करके पञ्जगव्यद्वारा

उसकी शुद्धि करे। इसके बाद कुशोदक, नदीके

जल एवं तीर्थ-जलसे उस प्रतिमाका प्रोक्षण

करें॥ १--७॥

होमके लिये बालूद्वार एक वेदी बनावे, जो

सब ओरसे डेढ़ हाथकी लंबी-चौड़ी हों। वह

बेदी चौकोर एवं सुन्दर शोभासे सम्पन्न हो।

सुसज्जित करें। तत्पश्चात्‌ अग्नि ले आकर वेदीपर

उसको स्थापना करे ओर कुशकण्डिकाद्रारा संस्कार

करके उस अग्निम ' त्वमग्ने द्युभिः०' (यजु

११। २७) इत्यादिसे तथा गायत्री -मन््रसे समिधाओंका

हवन करे । अष्टाक्षर-मन््रसे अष्टोत्तरशत घीकी

आहुति दे, पूर्णाहुति प्रदान करे । तत्पश्चात्‌ मूल-

मन्तरसे सौ नार अभिमन्त्रित किये गये शान्तिजलको

आम्रपल्लवोँद्रात लेकर इष्टदेवताके मस्तकपर

अभिषेक करे। अभिपेक-कालमे श्रीश्च ते

लक्ष्मी श्ष०'' इत्यादि ऋचाका पाठ करता रहे ।

+उत्तिष्ठ' ब्रह्मणस्यते०' इस मन्त्रसे प्रतिमाको

उठाकर ब्रह्मरथपर रखे ओर "तद्‌ › विष्णोः '

इत्यादि मन्त्रसे उक्त रथद्वारा उसे मन्दिरकी ओर

ले जाय। वहाँ श्रीहरिकौ उस प्रतिमाको शिविका

(पालकी) -में पधराकर नगर आदिमे घुमावे

और गीत, वाद्य एवं बेदमन्त्रोंकी ध्वनिके साथ

उसे पुनः लाकर मन्दिरके द्वारपर विराजमान

करें॥ ८--१३॥

इसके बाद गुरु सुवासिनी स्त्रियों और ब्राह्मणोंद्वार

आठ मड्जल-कलशोंके जलसे श्रीहरिको स्नान

करावे तथा गन्ध आदि उपचारयोसे मूल-मन्त्रद्वारा

पूजन करनेके पश्चात्‌ “अतो देवाः०' (ऋक्‌?

१।२२। १६) इत्यादि मन्त्रसे वस्त्र आदि अष्टाङ्ग

अर्घ्यं निवेदन करे । फिर स्थिर लग्नमें पिण्डिकापर

"देवस्य त्वा०*' इत्यादि मन्त्रसे इष्टदेवताके उस

आठ दिशाओंमें यथास्थान कलशॉंको भी स्थापित | अर्चा -विग्रहको स्थापित कर दे । स्यापनाके पश्चात्‌

करे। उन पूर्वादि कल्शोको आठ प्रकारके रंगोंसे | इस प्रकार कहै - ` सच्चिदानन्दस्वरूप त्रिविक्रम ¦ कहे --' सच्चिदानन्दस्वरूप त्रिविक्रम!

१. श्र ते लक्ष्मीक्ष पत्थावहोगा्रे पाश्च नक्षताणि रूपमशचिनौ स्यातम्‌ ॥ इण्णलषाफमु म इषाण सूर्यलोकं मे इषान्‌ ६ ( यजुः ३१।२२)

२. उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे । उप प्रयन्तु पस्तः सुदानव इन्र प्राशूर्भवा सचा ४ (यजु० ३४।५६)

३. चद्‌ चिष्णोः परमं पदः सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम्‌ ॥ (यजु० ६।५)

४. देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेडशिनोबाहिभ्यां पृष्यो हस्ताभ्याम्‌ । अग्नये जुष्ट गृहणम्यगनोशोपाध्यां जुट गृह्धामि ॥ (यजु० १।१०)

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