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शब्दतन्मात्रतत्त्के बोधक नकार (नं)-का

मस्तकमें और स्पर्शरूप धकार (धं)-का मुखप्रदेशे

न्यास करे। रूपतत्वकै वाचक दकार (दं)-का

नेत्रप्रान्तमें और रसतन्मात्राके बोधक थकार (थं) -

का वस्तिदेश (मूत्राशय)-में न्यास करे।

गन्धतन्मात्रस्वरूप तकार (तं )-का पिण्डलियोंमें

न्यास करे । णकार (णं)-का दोनों कानोंमें न्यास

करके ढकार (ढं)-का त्वचामेँ न्यास करे।

डकार (डं)-का दोनों नेत्रम, ठकार (ठं)-का

रसनाम, रकार (टे)-का नासिकार्मे और जकार

(जं)-का वागिद्धियमें न्यास करे। विद्धान्‌ पुरुष

पाणिततत्वरूप इकार (झं)-का दोनों हाथोंमें

न्यास करके, जकार (जं)-का दोनों पैरोंमें, "छं"

का पायुमें और "चं" का उपस्थमें न्यास करे।

ङकार (ई) पृथ्वीतत्वका प्रतीक है। उसका

युगल चरणे न्यास करे। घकार (घं)-का

वस्तिमें और तेजस्तत्त्वरूप (गं )-का हृदयमें न्यास

करे। खकार (खं) वायुतत्त्वका प्रतीक है। उसका

नासिकामें न्यास करे। ककार (कं) आकाशतत्त्वरूप

है। विद्वान्‌ पुरुष उसका सदा ही मस्तकमें न्यास

करे॥ १९--२५॥

इृदय-कमलें सूर्य-देवता-सम्बन्धी * य॑ ' बीजका

न्यास करके, हदयसे निकली हुई जो बहत्तर

हजार नादियाँ हैं, उनमें षोडश कलाओंसे युक्त

सकार (सं)-का न्यास करे। उसके मध्यभागं

मन्त्रज्ञ पुरुष विन्दुस्वरूप वद्िमण्डलका चिन्तन

करे । सुरश्रष्ट ! उसमें प्रणवसहित हकार (हं )-का

न्यास करे। १. ॐ आं नमः परमेष्ठशत्मने। २.ॐ

आं नमः पुरुषात्मने । ३.ॐ वां नमो नित्यात्मने ।

४.ॐ नां नमो विश्चात्मने। ५. ॐ वं नमः

सर्वात्मने! ये पाँच शक्तियौँ बतायी गयी है । ' स्नानकर्म!

में प्रथमा शक्तिकी योजना करनी चाहिये । ' आसनकर्म'

ओर “अर्चनाकाल'में पञ्चमी शक्तिका प्रयोग

करना चाहिये-ये पाँच उपनिषद्‌ हैं। इनके

मध्ये मन्त्रमय श्रीहरिका ध्यान करके क्षकार्‌

(क्षं) -का न्यास करे॥ २६-३१॥

तदनन्तर जिस मूर्तिकी स्थापना की जाती है,

उसके मूल-मन्त्रका न्यास करना चाहिये । (भगवान्‌

विष्णुकी स्थापना्मे) “ॐ नमो भगवते

वासुदेवाय ' -- यह मूल - मन्त्र है । मस्तक, नासिका,

ललाट, मुख, कण्ठ, हदय, दो भुजा, दो पिण्डली

और दो चरणोंमें क्रमश: उक्त मूल-मन््रके एक-

एक अक्षरका न्यास करना चाहिये । तत्पश्चात्‌

केशवका मस्तकमें न्यास करे । नारायणका मुखर्मे,

माधवका ग्रीवार्मे ओर गोविन्दका दोनों भुजाओंमें

न्यास करके विष्णुका हृदयमें न्यास करे । पृष्ठभागमें

मधुसूदनका, जठरमें वामनका और कटियें त्रिविक्रमका

न्यास करके जंघा (पिण्डली )-में श्रीधरका न्यास

करे । दक्षिण भागमें हषीकेशका, गुल्फमे पद्मनाभका

और दोनों चरणोंमें दामोदरका न्यास करनेके

पश्चात्‌ हदयादि षडङ्गन्यास करे ॥ ३२--३६॥

सत्पुरुषो श्रेष्ठ ब्रह्माजी! यह आदिमूर्तिके

लिये न्यासका साधारण क्रम बताया गया है।

अथवा जिस देवताकी स्थापनाका आरम्भ हो,

उसीके मूल-मन्त्रसे मूर्तिक सजीवकरणकी क्रिया

होनी चाहिये। जिस मूर्तिका जो नाम हो, उसके

आदि अक्षरका बारह स्वरोंसे भेदन करके अज्ञोंकी

कल्पना करनी चाहिये। देवेश्वर! हृदय आदि

अज्ञोंका तथा द्वादश अक्षरवाले मूल-मन्त्रका एवं

तत्त्वोंका जैसे देवताके विग्रहमें न्यास करे, वैसे

ही अपने शरीरमें भी करे। तत्पश्चात्‌ चक्राकार

पद्ममण्डलमें भगवान्‌ विष्णुका गन्ध आदिसे पूजन

करे। पूर्ववत्‌ शरीर और वस्त्राभूषणोंसहित भगवान्‌के

आसनका ध्यान करे। ऊपरी भागमें बारह अरोंसे

में द्वितीया, 'शयन' मे तृतीया, 'यानकर्म' में चतुर्थी | युक्त सुदर्शनचक्रका चिन्तन करें। वह चक्र तीन

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