तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष 'अक्षन्नमीमदन्त०' ' इत्यादि
मन्त्र पढ़कर भगवानके श्रीअज्ञोंपर दुर्वा एवं
अक्षत बिखेरे॥ १८--२२॥
*काण्डातू०*' इत्यादि मन्त्रसे निर्मज्छन करे।
“गन्धबती०'*' इत्यादिसे गन्ध अर्पित करे।
"उननयामि०' इस मन्त्रसे फूल-माला और “इदं
विष्णु:०*' इत्यादि मन्त्रसे पविन्नक अर्पित करे।
*बृहस्पते०*' इत्यादि मन्त्रसे एक जोड़ा वस्त्र
चढ़ावे। 'बेदाहमेतम् ५० ' इत्यादिसे उत्तरीय अर्पित
करे। 'महाव़तेन० ' इस मन्त्रसे फूल और औषध--
इन सबको चढ़ावे। तदनन्तर 'धूरसि०”' इस
मन्त्रसे धूप दे। 'विध्राट् ^" सूक्तसे अज्ञन अर्पित
करे। “युझ्लन्ति०*' इत्यादि मन्त्रसे तिलक लगावे
तथा “दीर्घात्वाय०' (अथर्व० २।४।१) इस
मनत्रसे फूलमाला चढ़ावे। “इन्द्र क्षत्रमभि० ' ( अथर्व०
७।४।२) इत्यादि मन्त्रसे छत्र, ' विराट् '”' मन्त्रसे
दर्पण, “विकर्ण ' मन्त्रसे चँवर तथा “रथन्तर'
साम-मन्त्रसे आभूषण निवेदित करे॥ २३--२६॥
वायुदेवता- सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा व्यजन, ' मुञ्चामि
त्वा" (ऋक् १०।१६१।१) इस मन्त्रसे फूल तथा
वेदादि (प्रणव) -युक्त पुरुषसूक्तके मन्त्रोंद्वारा श्रीहरिकी
स्तुति करे। ये सारी वस्तुं पिण्डिका आदिपर
भगवानूको उठाते समय ' सौपर्ण ' सुक्तका पाठ
करे। "प्रभो! उदिये" ऐसा कहकर भगवान्को
उठावे ओर मण्डपमें शय्यापर ले जाय। उस
समय “शकुनि ' सृक्तका पाठ करे। ब्रह्मरथ एवं
पालकी आदिके द्वारा भगवानूको शय्यापर ले
जाना चाहिये । ' अतो देवाः ' (ऋक्० १।२२।१६)
इस सूक्तसे तथा "श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च" (यजु०
३१।२२)-से प्रतिमा एवं पिण्डिकाको शय्यापर
पधरावे। तदनन्तर भगवान् विष्णुके लिये निष्कली-
करणकी क्रिया सम्पादित करे ॥ २७ -३०॥
सिंह, वृषभ, हाथी, व्यजन, कलश, वैजयन्ती
(पत्ताका), भेरी तथा दीपक--ये आठ मरङ्गलसुचक
वस्तुं है । इन सब वस्तुओंको अश्वसूक्तका पाठ
करते हुए भगवानूको दिखावे। ' त्रिपात् " ' इत्यादि
मन्त्रसे भगवानूके चरण-प्रान्तमें उखा ( पात्रविशेष),
उसका ढक्कन, अम्बिका (कडाही), दर्विका
(करछुल), पात्र, ओखली, मूसल, सिल, ०.
भोजन-पात्र तथा चरके अन्य सामान रखे।
सिरकी ओर वस्त्र और रत्नसे युक्त एक कलश
स्थापित करे, जो खाँड और खाद्य-पदार्थसे भरा
हुआ हो। उस घटकी “निद्रा' संज्ञा होती है। इस
प्रकार भगवानूके शयनकौ विधि बतायी गयी
तथा शिव आदि देवताओंपर इसी प्रकार चदावे। | है ॥ ३१--३४॥
इस गकार आदि आग्नेय महापुराणे "स्नेपनकी विधि आदिका वर्णन” नामक
अट्डावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ५५८ ॥
दि
१. अक्षल्तरमौमदन्त व प्रिया अधूषत। अस्तोषत स्यभानयो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी॥ (यजु० ३।५१)
काण्डात्काण्डात्परोहन्ती पुरुष: पुरुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्रतनु सहख्तेण शतेत्र च॥ (यजु>० १३।२०)
« “गन्यद्वारां
| बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाधुमद्विधाति ऋतुमस्जनेषु ।
बृहस्पतये त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा # (यजु० २६। ३)
> = 4० ~
॥॥
ज्योतिरधारयत्स्वराद्
ज्योतिर्यच्छ । अग्निष्टे ऽधिपतिस्तया
इत्यादि मन्त्र हौ यहाँ गन्धवती नामसे गृहीत होते हैं।
तरेधा निदथे पदम् । समूदमस्य पाः सूरे स्वाहा ॥ ( यजु ५। १५)
यदूदोदयच्छवस ऋतप्रजात तदस्मास द्रविणं धेहि चित्रमू। उपयामगृहीतोऽसि
नान्यः पन्था विच्चतेऽ वनाव ॥ ( यजु ३१। १८)
६. पुरुष महान्तमादित्यवर्णं परस्तात् बिदित्वा5तिपृत्युमेति
७. धूरसि धूर्व धूर्व धूर्व तं योऽस्मान्धूर्वति तं धूर्वयं ययं धूर्वामः । देवानामसि वह्वितमः सस्नितमं पप्रितमं जतम देवहूतमम् ॥ (कजु० १।८)
८ बृहत्पियतु सोम्य महिन् चातजूतो यो अभिरक्षति त्म प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति 8 ( यजु ३३। ३०)
९ दिवि ॥ (यजु० २३।५)
ज्योतिरधारयत्। प्रजापतिष्ट्वा स्वदयतु पृष्ठे पृथिब्या ज्योतिष्मतीम्। विश्वस्यै प्राणायापानाय व्यागाय विश्वं
दैवतया्गिरस्वद् ध्रुवासौद् ॥ (यजु० १३। २४)
११. त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येषठाभवत्पुनः । ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ (यजु १३४)