* अध्याय ५८ +
रक्तचन्दन, सरसों, तगर और अक्षत डाले।
पश्चिमके कलशमें सोना, चाँदी, समुद्रगामिनी
नदीके दोनों तटोंकी मिट्टी,विशेषतः गङ्गाकी
मृत्तिका, गोबर, जौ, अगहनी धानका चावल और
तिल छोड़े॥ ७ --१२ ६॥
उत्तके कलशमें विष्णुपर्णी (भुई आँवला),
शालपर्णी (सरिवन), भृङ्गरज (भौंगरया), शतावरी,
सहदेवी (सहदेइया), बच, सिंही (कटे या अड़सा),
बला (खेरी), व्याघ्री (कटेहरी) और लक्ष्मणा--
इन ओषधियोंको छेदे । ईशानकोणवतीं अन्य कलशे
माङ्गलिक वस्तुं छेदे। अग्निकोणस्थ दूसरे कलशे
बाँबी आदि सात स्थानोंकी मिट्टी छोड़े।
छेद डक ड ढक बकक ढक क छ कक छ छक छ छछक कक कक कक क कक कक क ऊ कक इक कक क ूूछ-
इन सबको एक कलशमें डालकर उसीके
ऊपर इष्ट-देवताकी स्थापना करे। अन्य कलशरमें
नदी, नद और तालाबोंके जलसे युक्त जल छोड़े।
इक्यासी पदवाले वास्तुमण्डलमे अन्यान्य कलशोंकी
स्थापना करे। वे कलश गन्धोदक आदिसे पूर्ण
हों । उन सबको श्रीसूक्तसे अभिमन्तित करे। जौ,
सरसों, गन्ध, कुशाग्र, अक्षत, तिल, फल और
पुष्य--इन सबको अर््यके लिये पात्रविशेषमें
संचित करके पूर्व दिशाकी ओर रख दे। कमल
श्यामलता, दुर्वादल, विष्णुक्रान्ता ओर कुश--इन
सबको पाद्य-निवेदनके लिये दक्षिण भागमें स्थापित
करे। मधुपर्क पश्चिम दिशामें रखे। कङ्काल,
नै्ऋत्यकोणवततीं अन्य कलशमें गङ्गाजीकौ बालू | लवङ्ग और सुन्दर जायफल -इन सबको आचमनके
और जल डाले तथा वायव्यकोणवतीं अन्य कलशमें
सूकर, वृषभ और गजराजके दाँत एवं सींगोंद्वारा
कोड़ी हुई मिट्टी, कमलकी जड़के पासकी मिट्टी
तथा इतर कलशमें कुशके मूल भागकी मृत्तिका
डाले। इसी तरह किसी कलशे तीर्थ और पर्वतोंकी
मृत्तिकाओंसे युक्त जल डाले, किसीमें नागकेसरके
फूल और केसर छोडे, किसी कलशमें चन्दन,
अगुरु और कपूरसे पूरित जल भरे और उसमें
वैदूर्य, विद्रुम, मुक्ता, स्फटिक तथा वज्र (हीरा)-
ये पाँच रल डाले ॥ १३--१८ ॥
उपयोगके लिये उत्तर दिशामें रखे । अग्निकोणमें
दर्वा ओर अक्षतसे युक्त एक पात्र नीराजना
(आरती उतारने) -के लिये रखे । वायव्यकोणमें
उद्र्तनपात्र तथा ईशानकोणे गन्धपिष्टसे युक्त पात्र
रखे। कलशमें सुरमांसी (जटामांसी), ओँवला,
सहदेइया तथा हल्दी आदि छोड़े। नीराजनाके
लिये अड्सठ दीपोंकी स्थापना करे । शङ्खं तथा
धातुनिर्मित चक्र, श्रीवत्स, वज्र एवं कमलपुष्प
आदि रंग-बिरंगे पुष्प सुवर्ण आदिके पात्रमें
सज्जितं करके रखे॥ १९--२६॥
इस प्रकार आदि आरनेय महाएशणर्में 'कलज्ञाधिवासकी विधिका वर्णन” नामक
सत्तावनवाँ अध्याय पूद्ध हुआ॥५७॥
न=
अट्टाबनवाँ अध्याय
भगवद्धिग्रहको स्नान और शयन करानेकी विधि
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं--ब्रह्मन्! आचार्य | मूर्तिपालक विद्वानों तथा शिल्पियोंसहित यजमान
ईशानकोणे एक होमकुण्ड तैयार करे और | बाजे-गाजेके साथ कारुशाला (कारीगरकी
उसमें वैष्णव-अग्निकी स्थापना करे। तदनन्तर | कर्मशाला) -में जाय । वहाँ प्रतिमावर्ती इषटदेवताके
गायत्री -मन्त्रसे एक सौ आठ आहुतियाँ देकर | दाहिने हाथमे कौतुकसूत्र (कङ्कण आदि) बधे ।
सम्पात-विधिसे कलशोंका प्रोक्षण करे । तदनन्तर । उसे बाधते समय “विष्णवे शिपिविष्टाय नम: ।'--