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अग्निपुराण +
तदनुसार मध्य, कर्ध्वं ओर अधः --इन विभागोंकी
स्थापना करे। मध्यम विभागसे ऊपरका अष्टकोण
या षोडश कोणवाला विभाग शिवका अंश है।
पाद या मूलभागसे जानुपर्यन्तं लिङ्गका अधोभाग
है, यह ब्रह्माका अंश है तथा जानुसे नाभिपर्यन्त
लिङ्गका मध्यम भाग है, जो भगवान् विष्णुका
अंश है ॥ ३० -३३॥
मूर्धान्तभाग भूतभागे श्वरका दै । व्यक्त-अव्यक्त
सभी लिङ्गके लिये ऐसी हौ बात है। जिस
शिवलिङ्गे पाँच लिड्गकी व्यवस्था है, वहाँ
शिरोभाग गोलाकार होना चाहिये -एेसा बताया
जाता है। वह गोलाई छत्राकार हो, मुर्गीके अंडेके
समान हो; नवोदित चन्द्रके सदृश हो या पुरुषके
आकारकी हो । [पुरुषाकृति ' के स्थानमें ' त्रपुषाकृति '
पाठ हो तो गोलाई त्रपुषके समान आकारवाली
हो--ऐसा अर्थ लेना चाहिये ।] इस प्रकार एक-
एकके चार भेद होते हैं। कामनाओंके भेदसे
इनके फलमें भी भेद होता है, यह बताऊँगा।
लिङ्गके मस्तक-भागका विस्तार जितने अङ्गुलका
हो, उतनी संख्याम आटसे भाग दे। इस प्रकार
मस्तकको आठ भागों विभक्त करके आदिके
जो चार भाग हैं, उनका विस्तार और ऊँचाईके
अनुसार ग्रहण करे। एक भागको छर देनेसे
"पुण्डरीक ' नामक लिङ्ग होता है, दो भागोंको
लुप्त कर देनेसे "विशाल ' संज्ञक लिङ्गं होता है,
तीन भागोंका उच्छेद कर देनेपर उसकी ' श्रीवत्स '
संज्ञा होती है तथा चार भागोके लोपसे उस
लिङ्गको “शत्रुकारक' कहा गया है। शिरोभाग
सब ओरसे सम हो तो श्रेष्ठ माना गया है।
देवपूज्य लिङ्गे मस्तक-भाग कुक्कुटके अण्डकी
भाँति गोल होना चाहिये॥ ३४--३८॥
चतुर्भागात्मक लिड्रमेंसे ऊपरका दो भाग
मिटा देनेसे “त्रपुष' नामक लिङ्ग होता है। यह
(त्रपुष) अनाठ्यसंज्ञक शिवलिङ्गका सिर माना
गया है। अब अर्द्ध-चन्द्राकार सिरके विषयमे
सुनो-शिवलिङ्गके प्रान्भभागमें एक अंशके चार
अंश करके एक अंशको त्याग दिया जाय तो वह
*अमृताक्ष' नाम धारण करता है। दूसरे, तीसरे
और चौथे अंशका लोप करनेपर क्रमशः उन
शिवलिड्रोंकी 'पूर्णेन्दु', 'बालेन्दु/ तथा “कुमुद '
संज्ञा होती है। ये क्रमश: चतुर्मुख, त्रिमुख और
एकमुख होते हैं। इन तीनोंको ' मुखलिङ्ग' भी
कहते हैं। अब मुखलिड्भके विषयमें सुनो--
पूजाभागकी त्रिविध कल्पना करनी चाहिये -
मूर्तिपूजा, अग्निपूजा तथा पदपूजा। पूर्ववत् द्वादशंशका
त्याग करके छः भागोंद्वारा छः स्थानोंकी अभिव्यक्ति
करे। सिरको ऊँचा करना चाहिये तथा ललाट,
नासिका, मुख, चिबुकं तथा ग्रीवाभागको भी
स्पष्टतया व्यक्त करे। चार भागों (या अंशों)-द्वारा
दोनों भुजाओं तथा नेत्रोंकों प्रकट करे । प्रतिमाके
प्रमाणके अनुसार मुकुलाकार हाथ बनाकर विस्तारके
अष्टमांशसे चारों मुखोंका निर्माण करे । प्रत्येक
मुख सब ओरसे सम होना चाहिये । यह मैंने
चतुर्मुखलिङ्गके विषयमें बताया है; अब त्रिमुखलिड्डके
विषयमें बताया जाता है, सुनो--॥ ३९--ड४ ॥
त्रिमुखलिङ्गमे चतुर्मुखकी अपेक्षा कान और
पैर अधिक रहेंगे। ललाट आदि अड्ोंका पूर्ववत्
ही निर्देश करे। चार अंशोंसे दो भुजाओंका
निर्माण करे, जिनका पिछला भाग सुदृढ़ एवं
सुपुष्ट हो। विस्तारके अष्टमांशसे तीनों मुखोंका
बिनिर्गम (प्राकट्य) हो। [अब एकमुखलिङ्गके
विषयमें सुनो--] एकमुख पूर्व दिशामें बनाना
चाहिये; उसके नेत्रोंमें सौम्यभाव रहे। (उग्रता न
हो।) उसके ललाट, नासिका, मुख और
ग्रीवामें विवर्तन (विशेष उभाड़) हो। बाहु-
विस्तारके पश्चमांशसे पूर्वोक्त अङ्गका निर्माण