चौवनवाँ
लिड्ड-मान एवं व्यक्ताव्यक्त लक्षण आदिका वर्णन
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं-- ब्रह्मन्! अब
मैं दूसरे प्रकारसे लिङ्गं आदिका वर्णन करता हूँ,
सुनो, लवण तथा घृतसे निर्मित शिवलिङ्ग बुद्धिको
बढ़ानेवाला होता है । वस्त्रमय लिङ्ग एेधर्वदायक
होता है । उसे तात्कालिक (केवल एक बार ही
पूजाके उपयोगमें आनेवाला) लिङ्ग माना गया है ।
मृत्तिकासे बनाया हुआ शिवलिङ्ग दो प्रकारका
होता है- पक्र तथा अपक्त । अपक्तसे पक्त श्रेष्ठ
माना गया है । उसकी अपेक्षा काष्टका बना हुआ
शिवलिङ्गं अधिक पवित्र एवं पुण्यदायक है।
काष्ठमय लिङ्गसे प्रस्तरका लिङ्ग श्रेष्ठ है। प्रस्तरसे
मोतीका और मोतीसे सुवर्णका बना हुआ ' लौह
लिङ्ग" उत्तम माना गया है। चाँदी, तबे, पीतल,
रत्न तथा रस (पारद) -का बना हुआ शिवलिङ्ग
भोग- मोक्ष देनेवाला एवं श्रेष्ठ है । रस (पारद
आदि)-के लिङ्गको रगा, लोहा (सुवर्ण, तबा)
आदि तथा रत्नके भीतर आबद्ध करके स्थापित
करे। सिद्ध आदिके द्वारा स्थापित स्वयम्भूलिङ्ग
आदिके लिये माप आदि करना अभीष्ट नहीं
है॥ १--५॥
बाणलिड़ (नर्मदेश्वर)-के लिये भी यही बात
है। (अर्थात् उसके लिये भी “वह इतने अङ्गुलका
हो '--इस तरहका मान आदि आवश्यक नहीं
है।) वैसे शिवलिड्रोंके लिये अपनी इच्छाके
अनुसार पीठ ओर प्रासादका निर्माण करा लेना
चाहिये। सूर्वमण्डलस्थ शिवलिङ्गको दर्पणमें
प्रतिबिम्बित करके उसका पूजन करना चाहिये।
वैसे तो भगवान् शंकर सर्वत्र ही पूजनीय हैं, किंतु
शिवलिङ्गे उनके अर्चनकी पूर्णता होती है।
प्रस्तरका शिवलिङ्ग एक हाथसे अधिक ऊँचा
होना चाहिये । काष्टमय लिङ्गका मान भी ऐसा ही
है। चल शिवलिङ्गका स्वरूप अङ्गुल-मानके
अनुसार निश्चित करना चाहिये तथा स्थिर लिङ्गका
ट्वारमान, गर्भमान एवं हस्तमानके अनुसार । गृहमें
पूजित होनेवाला चललिङ्गं एक अरङ्गुलसे लेकर
पंद्रह अङ्गुलतकका हो सकता है ॥ ६--८॥
द्वारमानसे लिङ्गके तीन भेद हैं। इनमेंसे
परत्येकके गर्भमानके अनुसार नौ-नौ भेद होते है ।
(इस तरह कुल सत्ताईस हए । इनके अतिरिक्त)
करमानसे नौ लिङ्गं ओर हैं। इनकी देवालये
पूजा करनी चाहिये । इस प्रकार सबको एकमे
जोड़नेसे छत्तीस लिङ्ग जानने चाहिये । ये ज्येष्ठमानके
अनुसार है । मध्यममानसे ओर अधम (कनिष्ठ) -
मानसे भी छत्तीस-छत्तीस शिवलिङ्ग है -एेसा
जानना चाहिये । इस प्रकार समस्त लिङ्गोको एकत्र
करनेसे एक सौ आठ शिवलिङ्ग हो सकते है ।
एकसे लेकर पाँच अङ्गुलतकका चल शिवलिङ्ग
"कनिष्ठ" कहलाता है, छः से लेकर दस
चल लिङ्ग" मध्यम ' कहा गया है तथा ग्यारहसे लेकर
पंद्रह अङ्गुलतकका चल शिवलिङ्ग “ज्येष्ट' जानने
योग्य है । महामूल्यवान् रत्नोंका बना हुआ शिवलिङ्ग
छः अङ्गुलका, अन्य रतनोंसे निर्मित शिवलिङ्गं नौ
अङ्गुलका, सुवर्णभारका बना हुआ बारह अङ्गुलका
तथा शेष वस्तुओंसे निर्मित शिवलिङ्ग पंद्रह
अङ्गुलका होना चाहिये ॥ ९-१३॥
लिङ्ग-शिलाके सोलह अंश करके उसके
ऊपरी चार अंशॉमेंसे पार्वतीं दो भाग निकाल
दे । फिर बत्तीस अंश करके उसके दोनों कोणवर्ती
सोलह अंशको लुप्त कर दे। फिर उसमें चार
अंश भिलानेसे "कण्ठ" होता है । तात्पर्य यह कि
बीस अंशका कण्ठ होता है और उभय पार्वतीं
३५४-१२ अशोको मिटानेसे ज्येष्ठ चल लिङ्ग