क्रमसे अलग-अलग रखे। इनमें पहला भाग | करावे। यह लिड्रोंका साधारण लक्षण बताया
ब्रह्माका, दूसरा विष्णुका और तौसरा शिवका दै । | गया; अब पिण्डिकाका सर्वसाधारण लक्षण वताता
उन भागोंमें यह ' वर्धमान ' भाग कहा जाता है।
चौकोर मण्डलमें कोणसूत्रके आधे मापको लेकर
उसे सभी कोणोंमें चिट्ठित करे। ऐसा करनेसे
आठ कोणोंका ' वैष्णवभाग' सिद्ध होता है, इसमें
संशय नहीं है। तदनन्तर उसे षोडश कोण और
फिर बत्तीस कोणोंसे युरू करे ॥ १--४॥
हूँ, मुझसे सुनो॥९--१३॥
ब्रह्मभागे प्रवेश तथा लिङ्गकी ऊँचाई जानकर
विद्वान् पुरुष ब्रह्मशिलाकी स्थापना करे ओर उस
शिलाके ऊपर ही उत्तम रीतिसे कर्मका सम्पादन
करे। पिण्डिकाकी ऊँचाईको जानकर उसका
विभाजन करे । दो भागकी ऊचाईको पीठ समझे।
तत्पश्चात् चौंसठ कोणोंसे युक्त करके वहाँ | चौड़ाईमें वह लिड्रके समान ही हो। पीठके
गोल रेखा बनावे। तदनन्तर श्रेष्ठ आचार्य लिङ्गके | मध्यभागमें खात (गड्ढा) करके उसे तीन भागोंमें
शिरोभागका कर्तन करे। इसके बाद लिङ्खके
विस्तारको आठ भागोंमें विभाजित करें। फिर
उनमेंसे एक भागके चौथे अंशको छोड़ देनेपर
छत्राकार सिरका निर्माण होता है। जिसकी
लंबाई-चौड़ाई तीन भागोंमें समान हो, वह
समभागवाला लिङ्गं सम्पूर्णं मनोवाज्छित फर्लोको
देनेवाला है। देवपूजित लिङ्गम लंबाईके चौथे
भागसे विष्कम्भ बनता है। अव तुम सभी
लिड्रोंके लक्षण सुनो ॥ ५-८ ॥
विद्धान् पुरुष सोलह अङ्गुलवाले लिङ्गके
मध्यवर्ती सूत्रको, जो ब्रह्म और रुद्रभागके निकटस्थ
है, लेकर उसे छः भागोपिं विभाजित करे।
वैयमन-सूत्रोद्वारा निश्चित जो वह माप है, उसे
“अन्तर' कहते हैं। जो सबसे उत्तरवर्ती लिङ्ग है,
उसे आठ जौ बड़ा बनाना चाहिये; शेष लिङ्गोको
एक-एक जौ छोटा कर देना चाहिये। उपर्युक्त
लिङ्गके निचले भागको तीन हिस्सोंमें विभक्त
करके ऊपरके एक भागको छोड़ दे। शेष दो
भागोंकों आठ हिस्सोंमें विभक्त करके ऊपरके
तीन भागोंको त्याग दे। पाँचवें भागके ऊपरसे
घूमती हुई एक लंबी रेखा बनावे और एक
विभाजित करे। अपने मानके आधे त्रिभागसे
"बाहुल्य ' की कल्पना करे। बाहुलयके तृतीय
भागसे मेखला बनावे और मेखलाके ही तुल्य
खात (गड्ढा) तैयार करे । उसे क्रमशः निम्न (नीचे
झुका हुआ) रखे । मेखलाके सोलहवे अंशसे खात
निर्माण करे और उसीके मापके अनुसार उस
पीठकी ऊँचाई, जिसे * विकाराङ्ग' कहते हैं,
करावे। प्रस्तरका एक भाग भूमिमें प्रविष्ट हो, एक
भागसे पिण्डिका बने, तीन भागोंसे कण्ठका
निर्माण कराया जाय और एक भागसे पट्टिका
बनायी जाय॥ १४--१९॥
दो भागसे ऊपरका पट बने; एक भागसे
शेष-पट्टिका तैयार करायी जाव। कण्ठपर्यन्त
एक-एक भाग प्रविष्ट हो। तत्पश्चात् पुनः एक
भागसे निर्गम (जल निकलनेका मार्ग) बनाया
जाय । यह शेष- पट्टिका तक रहे । प्रणाल (नाली )-
के तृतीय भागसे निर्गम बनना चाहिये।
तृतीय भागके मूलमें अङ्गुलिके अग्रभागके बराबर
विस्तृत खात बनावे, जो तृतीय भागसे आधे
विस्तारका हो । वह खात उत्तरी ओर जाय।
यह पिण्डिकासहित साधारण लिङ्गका वर्णन
भागको छोड़कर बीचमें उन दो रेखाओंका संगम | किया गया ॥ २०--२३॥
इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराण्मे “लिङ्ग आदिके लक्षणका वर्णन” नामक
हिरपतवाँ अध्याव पूदा हुआ॥५३॥
ला