* अध्याय ५३ *
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ॐ हूँ भैरवाय नम:--उदीच्याम्। ॐ हँ भैरवाय
- वायव्ये। ॐ हैं भैरवाय नमः प्रतीच्याम्।
ॐ हों भैरवाय नमः --नैत्रत्याम्। ॐ हाँ भैरवाय
नपः--अवाच्याम्। ॐ हु: भैरवाय नमः--
आग्रेव्याम्। इस प्रकार इन मनत्रद्रारा क्रमशः उन
दिशाओंमें भैरवका पूजन करे। इन्हींमेंसे छ
ब्ीजमन्त्रौद्रार षडङ्गन्यास एवं उन अज्ञोंका पूजन
भी करना चाहिये ॥ १२॥
उनका ध्यान इस प्रकार है-- भैरवजी मन्दिर
अथवा मण्डलके आग्नेयदल (अग्निकोणस्थ दल) -
में विराजमान सुवर्णमयी रसनासे युक्त, नाद,
बिन्दु एवं इन्दुसे सुशोभित तथा मातृकाधिपतिके
अङ्गसे प्रकाशित है । (ऐसे भगवान् भैरवका मैं
भजन करता हूँ ।) वीरभद्र वृषभपर आरूढ हैं। वे
मातृकाओंके मण्डलम विराजमान और चार
भुजाधारी हैं। गौरी दो भुजाओंसे युक्त और
ब्रिनेत्रधारिणी है । उनके एक हाथमें शूल और
दूसरेमें दर्पण है । ललितादेवी कमलपर विराजमान
है । उनके चार भुजाएँ ह । वे अपने हाथोंमें त्रिशूल,
कमण्डलु, कुण्डी ओर वरदानकी मुद्रा धारण
करती हैँ । स्कन्दकौ अनुचरौ मातृकागणेकि हाथोंमें
दर्पण और शलाका होनी चाहिये ॥ १३--१५॥
चण्डिका देवीके दस हाथ हैं। वे अपने
दाहिने हाथोंमें बाण, खड्ग, शूल, चक्र और
शक्ति धारण करती हैं और बायें हाथोंमें नागपाश,
ढाल, अंकुश, कुठार तथा धनुष लिये रहती हैं।
वे सिंहपर सवार हैं और उनके सामने शूलसे मारे
गये महिषासुरका शव है॥ १६-१७॥
इस अकार आदि आग्नेव महापुराणमें 'चाँसठ योगिती आदिकी परतिमाओकि लक्षणोंका वर्णन
नामक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५२॥
॥(- ( तल
तिरपनवाँ अध्याय
लिङ्गः आदिका लक्षण
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं-- कमलोद्धव ! | तीन भागको त्याग दे और शेष पाँच भागोंसे
अब मैं लिङ्ग आदिका लक्षण बताता हूँ, सुनो । | चौकोर विष्कम्भका निर्माण कराये । फिर लंबाईके
लंबाईके आधेमें आठसे भाग देकर आठ भागोंमेंसे | छ: भाग करके उन सबको एक, दो और तीनके
१. यधा- ॐ> हां हृदयाय नमः । 35 हों शिरसे स्वाहा । ॐ> हुं शिखायै वषट् । ॐ हैं कवचाय हुम्। ॐ> हाँ, नेत्रत्रयाय चौषदट्। ॐ>
हृ: अस्त्राय फट् ।
२. श्रीकिचचार्णवतन्त्रके ११वें श्वासे लिज्र-विर्माणकी साधारण विधि इस प्रकार दी गयौ है--
अपनी रूचिके अनुसार लिङ्गं कल्पित करके उसके मस्तकका विस्तार उतना ही रखे, जितनी पूजित लिङ्गभागकी ऊँचाई हो । जैसा
कि ौवागमका वचन है-' लिङ्गपस्तकविस्तारो लिद्गोच्छरावसमो भवेत्।' लिङ्गके मस्तकका विस्तार जितना हो, उससे तिगुने सूत्रसे वेष्टित
होने योग्य लिङ्गकौ स्थूलता (मोटाई) रखे । शिवलिङ्गकी जो स्थूलता या मोटाई है, उसके सूतके यराबर पौठका विस्तार रखे। तत्पश्चात्
पूज्य लिङ्गका जो उच्च अंश है, उससे दुगुनी ऊँचाईले युक्त वृत्ताकार या चतुरस्र पीठ बनावे । पौठके मध्यभागमें लिङ्गके स्थूलतामाग्रसूचक
नाहसूत्रके द्विगुण सूजसे वेष्टित होने योग्य स्थूल कष्ठका निर्माण करे । कण्ठके ऊपर और नीचे समभागसे तीते या दो मेखलाऑँकी रचना
करे। तदनन्तर लिङ्गके मस्तकका जो विस्तार है, उसको छः भागो विभक्त करे ¦ उनमेंसे एक अंशके मानके अनुसार पौठके ऊपरी
भागमें सबसे बाहरी अंशके द्वारा मेखला अनावे। उसके भोतर उसी मानके अनुसार उससे संलग्न अंशके द्वार खात (गर्त)-कौ रचना
करे। पौठसे बाह्मभागमें लिङ्गके समान हौ बड़ी अथवा पीठमानके आधे मानके अराबर बड़ी, मूलदेशे दौ्घांश मानके समान विस्तारवाली
और अग्रभागे उसके आधे मानके तुल्य विस्तारवाली नालो बनावे। इसीको ' प्रणाल' कहते हैं। प्रणालके मध्यमे मूलसे अग्रभागपर्थत्त
जलमार्ग बनावे। प्रणालका जो विस्तार है, उसके एक तिहाई विस्तारवाले खातरूप जलमार्गसे युक्त पौठ- सदृश मेखलायुक प्रणाल बनाता
चाहिये। यह स्फटिक आदि रत्रविशेषों अथवा प्राषाण आदिके द्वारा शिवलिद्व-निर्माणकी साधारण यिधि है। यथा--
लिक्गमस्तकविस्तार॑ पृण्यभागसम॑ नयेत् । "^^." "लक्षणम्यचरत् ॥ १--८ ॥